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जैन धर्म: सार सन्देश अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों की तथा योग प्रवृत्तियों (कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों) की संक्रान्ति (परिवर्तन) होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। ध्यान रत्नदीपक की ज्योति की भाँति निष्कंप होकर ठहरता है।
नियमसार तात्पर्य वृत्ति में इस ध्यान को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है: ध्यान, ध्येय, ध्याता, ध्यान का फल आदि के विविध विकल्पों से विमुक्त (निर्विकल्प), अन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रिय समूह के अगोचर, निरंजन, निज परमतत्त्व (परमात्मस्वरूप) में अविचल स्थितरूप ध्यान वह निश्चय शुक्लध्यान है।82
जब ध्यान में लीन ध्यानी के सभी विकल्प मिट जाते हैं और वह सभी विषयों को भूलकर तथा मन्त्र-सुमिरन या अन्य ध्येय वस्तु को भी छोडकर शून्यवत् बना हुआ केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) में निष्कम्प भाव से स्थिर हो जाता है तो उसके ध्यान को शून्यध्यान कहा जाता है।
णाणसार (ज्ञानसार) में शून्यध्यान के स्वरूप को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है:
परमार्थ से सालम्बन ध्यान (धर्म ध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थान में पहुँचकर स्थूलतः शून्य हो जाता है। क्योंकि रागादिसे मुक्त, मोह रहित, स्वभाव परिणत (आत्मभाव में लीन) ज्ञान ही जिनशासन में शून्य कहा जाता है। जिस ध्यान में न तो इन्द्रिय विषय है, न मंत्र-स्मरण (मन्त्र का सुमिरन) है, न कोई ध्यान करने की वस्तु है, न कोई धारणा स्मरण है; केवलज्ञान परिणति (केवल ज्ञान में स्थिति) ही है और जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत् निर्मल है, वह शून्य ध्यान कहलाता है।
मैं किसी का नहीं, पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ : शून्य ध्यान के ज्ञान में योगी इस प्रकार के परम स्थान को प्राप्त करता है।