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अन्तर्मुखी साधना जब सभी विकल्प मिट जाते हैं और ध्याता ध्येय में स्थिरतापूर्वक लीन हो जाता है तब उस ध्यान को निर्विकल्प ध्यान कहते हैं। ध्येय की दृष्टि से इस निर्विकल्प ध्यान को ही रूपातीत ध्यान अर्थात् रूप-रंगादि रहित परमात्मा का ध्यान कहा जाता है और ध्यान के स्वरूप की दृष्टि से इसे ही शुक्ल ध्यान (जो विशुद्ध होता है) कहा जाता है। इसमें भी क्रमिक विकास होता है। जैसे-जैसे यह निर्विकल्प ध्यान गहरा, सूक्ष्म और स्थिर होता जाता है वैसे-वैसे ध्यान भी उच्चतर कोटि का होता जाता है। ध्यान की गहराई, सूक्ष्मता और स्थिरता एक-दूसरे पर निर्भर है। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होता जाता है वैसे-वैसे वह अधिक सूक्ष्म होता जाता है और उस ध्यान में अधिक आनन्द आने से उसमें स्थिरता भी बढ़ती जाती है। अन्त में ध्यान अत्यन्त गहरा, सूक्ष्म और स्थिर होकर परमात्म स्वरूप में निष्कम्प भाव से टिक जाता है। उस अवस्था को जैन धर्म में शून्य ध्यान कहा जाता है।
सविकल्प और निर्विकल्प ध्यान या समाधि का भेद बताते हुए अनुभव प्रकाश में कहा गया है:
निश्चय मोक्ष-मार्ग के दो भेद (स्तर) हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प में 'अंह ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ)-ऐसा भाव आता है। निर्विकल्प को वीतराग अवस्था अर्थात् स्वसंवेदन (आत्मानुभव की एकता या अभेद भाव) कहा जाता है।* 80
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में स्पष्ट कहा गया है कि निर्विकल्प समाधि को ही शुक्ल ध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं:
ध्यान करते हुए साधु को बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रकट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में
* निश्चय मोक्ष-मार्ग दोय प्रकार-सविकल्प, निर्विकल्प। सविकल्प मैं 'अहं ब्रहा अस्मि' मैं ब्रहा हूँ, ऐसा भाव आवै। निर्विकल्प में वीतराग-स्वसंवेदन समाधि कहिये। (टिप्पणी 79 का मूल रूप)