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________________ 302 जैन धर्म : सार सन्देश सर्वव्यापक हूँ, सिद्ध हूँ, तथा मैं ही साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य था। संसार से रहित, परमात्मा, परमज्योतिस्वरूप, समस्त विश्व का देखनेवाला मैं ही हूँ। मैं ही निरंजन हूँ, ऐसा परमात्मा का ध्यान करै। उस समय अपना स्वरूप निश्चल अमूर्त अर्थात् शरीररहित निष्कलङ्क, जगत् का गरु, चैतन्यमात्र और ध्यान तथा ध्याता के भेदरहित ऐसा अतिशय स्फुरायमान (प्रतीत) होता है। यह मुनि जिस समय पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा का ध्यान करता है उस समय परमात्मा में पृथक् भाव अर्थात् अलगपने का उल्लंघन करके साक्षात् एकता को इस तरह प्राप्त हो जाता है कि, जिससे पृथक्पने का बिल्कुल भान नहीं होता। भावार्थ-उस समय ध्याता और ध्येय में द्वैतभाव नहीं रहता। हे मने, इस प्रकार जिसके समस्त विकल्प दूर होगये हैं, जिसके रागादिक सब दोष क्षीण हो चुके हैं, जो जानने योग्य समस्त पदार्थों का जाननेवाला है, जिसने संसार के समस्त प्रपञ्च छोड़ दिये हैं, जो शिव अर्थात् कल्याण स्वरूप अथवा मोक्ष स्वरूप है, जो अज अर्थात् जिसको आगे जन्म-मरण नहीं करना है, जो अनवद्य अर्थात् पापों से रहित है, तथा जो समस्त लोक का एक अद्वितीय नाथ है ऐसे परम पुरुष परमात्मा को भावों की शुद्धतापूर्वक अतिशय करके भज। भावार्थ-शुद्ध भावों से ऐसे परम पुरुष परमात्मा का ध्यान कर। सिद्ध निरंजन कर्मबिन, मूरतिरहित अनन्त । जो ध्यावै परमातमा, सो पावे शिव संत॥", अर्थात् जो सन्तरूप सज्जन ध्याता परिपूर्ण, कर्मरहित, अमूर्त, अनन्त (अन्तरहित) और निरञ्जन (मायारहित) परमात्मा का ध्यान करता है वह कल्याणमय मोक्ष पद को प्राप्त करता है। ध्यान का क्रमिक विकास होता है। हम कह चुके हैं कि जब तक ध्यानी के अन्दर द्वैतभाव बना रहता है या ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल आदि के विकल्प उठते रहते हैं तब तक उस ध्यान को सविकल्प ध्यान कहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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