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अन्तर्मुखी साधना
301 धीरे-धीरे परमात्मा के गुणों को ग्रहण करता हुआ यह अनुभव करने लगता है कि मैं परमात्मा हूँ, 'अंह ब्रह्मास्मि'। पर इस ध्यान में आत्मा और परमात्मा का भेद या द्वैतभाव बना रहता है। जब तक यह भेद बना रहता है तब तक इस ध्यान को सविकल्प ध्यान कहते हैं। जब आत्मा और परमात्मा का यह भेद या द्वैतभाव मिट जाता है और ध्याता सर्वविकल्प रहित हो अपने को परमात्मा में लीन कर लेता है तो उस ध्यान को निर्विकल्प ध्यान या निर्विकल्प समाधि कहते हैं। इस निर्विकल्प समाधि या ध्यान को रूपातीत ध्यान कहते हैं। इस ध्यान द्वारा आत्मा परमात्मा में समाकर परमात्मा बन जाती है। ज्ञानार्णव में इस रूपातीत ध्यान को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है:
रूपस्थ ध्यान में स्थिरीभूत है चित्त जिसका तथा नष्ट हो गये हैं विभ्रम जिसके ऐसा ध्यानी अमूर्त अजन्मा इन्द्रियों से अगोचर, ऐसे परमात्मा के ध्यान का प्रारम्भ करता है।
जिस ध्यान में ध्यानी मुनि चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप (परमात्मारूप) आत्मा को आत्मा द्वारा स्मरण करै अर्थात् ध्यावै सो रूपातीत ध्यान माना गया है।
परमात्मा के स्वभाव से एकरूप भावित अर्थात् मिला हुआ ध्यानी मुनि उस परमात्मा के गुण समूहों से पूर्ण रूप अपने आत्मा को करके, फिर उसे परमात्मा में योजन करे (जोड़ दे या मिला दे)। ऐसा विधान है।
ध्यानी मुनि उस परमात्मा के स्वरूप में मन लगाकर उसके ही गुणग्रामों से रंजायमान हो (रँगकर) उसमें ही अपनी आत्मा को आप ही से उस स्वरूप की सिद्धि के लिए जोड़ता है अर्थात् तल्लीन होता है।
जैसे निर्मल दर्पण में पुरुष के समस्त अवयव और लक्षण दिखाई पड़ते हैं उसी तरह परमात्मा के समस्त गुण निर्मल आत्मा में प्रतिबिम्बित होते हैं।
पूर्वोक्ति प्रकार से जब परमात्मा का निश्चय हो जाता है और दृढ़ अभ्यास से उसका प्रत्यक्ष होने लगता है उस समय परमात्मा का चितवन इस प्रकार करै कि ऐसा परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ,