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________________ 310 जैन धर्म: सार सन्देश अन्य धर्मात्माओं का अपमान करता है वह वास्तव में अपने ही धर्म का अपमान करता है। इस प्रकार सच्चा और प्रशंसनीय ध्याता वही है जो राग-द्वेष और मोह से ऊपर उठकर तथा संसार के प्रति अनासक्त भाव अपनाकर दृढ़ संकल्प और पूर्ण निष्ठा के साथ अडिग होकर ध्यान की साधना में जुटा रहता है। ध्यान या किसी भी पारमार्थिक साधना में जाति, कुल और वेश-भूषा का कोई महत्त्व नहीं है। ध्यान का आसन, स्थान, समय और फल ध्यान के लिए मन का एकाग्र और स्थिर बने रहना आवश्यक है। मन शरीर द्वारा प्रभावित होता है। इसलिए ध्यान के लिए वही आसन उपयुक्त हो सकता है जो शरीर के लिए कष्टकारक न हो। साथ ही शरीर को सीधा, सजग और स्थिर बनाये रखना भी आवश्यक है। इसलिए ध्यान के लिए न लेट जाना ठीक है और न लगातार खड़ा रहना ही ठीक है। बस शान्तिपूर्वक पलथी लगाकर सरल भाव से (विशेष तनकर नहीं) शरीर को सीधा रखकर सुखपूर्वक आसन लगाकर ध्यान में बैठ जाना चाहिए। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: जिस जिस आसनसे सुखरूप उपविष्ट (बैठा हुआ) मुनि अपने मन को निश्चल कर सके वही सुंदर आसन मुनियों को स्वीकार करना चाहिये। पतञ्जलि के योगसूत्र में भी आसन की परिभाषा देते हुए कहा गया है: स्थिर सुखमासनम्। अर्थात् स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठना ही आसन है। ध्यान की सिद्धि के लिए बिना हिले-डुले और बिना कष्ट के जमकर अपने आसन में बैठे रहना आवश्यक है। ऐसा करने में सफल होना ही आसन को जीतना है जिसमें तन (शरीर) और मन-दोनों शान्त और स्थिर बने रहते हैं। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णव में कहा गया है:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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