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________________ 296 जैन धर्म : सार सन्देश भज चतुर्विंशति नाम । जे भजे ते उतरि भवदधि लयो शिवसुख-धाम ॥ राखि निश्चय जपो 'बुधजन' पुरे सबके काम ॥ / अर्थ - हे भव्यात्मन् ! चौबीसों भगवान् के ( बताये ) नाम का भजन कर । जिन्होंने भजन किया उन्होंने संसार - समुद्र से पार उतर कर शिवसुख (मोक्षसुख) प्रदान करनेवाले स्थान को प्राप्त किया । हे बुधजन ! श्रद्धापूर्वक इनका जप करो। ये नाम सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं।7/ रूपस्थ और रूपातीत ध्यान उपर्युक्त पिण्डस्थ ध्यान और पदस्थ ध्यान के विवेचन से यह स्पष्ट है कि पिण्डस्थ ध्यान में अरहंत (अर्हत् ) भगवान् या सन्त सद्गुरु के देह स्वरूप का और पदस्थ ध्यान में उनके द्वारा दिये गये मन्त्र का ध्यान किया जाता है । इन दोनों ध्यानों के फलस्वरूप अन्तर में अनहद या अनाहत नाद सुनाई देने लगता है और अर्हत् भगवान् या सन्त सद्गुरु के ज्योतिर्मय दिव्य स्वरूप का दर्शन होता है। रूपस्थ ध्यान में अर्हत् भगवान् या सन्त सद्गुरु के इसी दिव्य स्वरूप का ध्यान किया जाता है । इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ - इन तीनों ही ध्यानों में अर्हत् भगवान् या सन्त सद्गुरु का ही किसी न किसी रूप में ध्यान किया जाता है। इसीलिए द्रव्यसंग्रह टीका में कहा गया है: पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों के ध्येयभूत श्री अर्हत् सर्वज्ञ हैं। 72 यह बतलाते हुए कि रूपस्थ ध्यान में अर्हत् भगवान के दिव्य स्वरूप का ध्यान किया जाता है, तत्त्वभावना में उनके दिव्य स्वरूप तथा दिव्यलोक में होनेवाली उनकी अलौकिक सभा (समवसरण) के मनोहर दृश्य का वर्णन इन शब्दों में किया गया है: अरहंत भगवान् के स्वरूप में तन्मय होकर उनका ध्यान करना सो रूपस्थ ध्यान है। जिनका परमौदारिक (दिव्य ) शरीर कोटि सूर्यकी
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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