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अन्तर्मुखी साधना
ज्योति को मंद करनेवाला है, जिसमें मांस आदि सात धातुएँ नहीं हैं। परम शुद्ध रत्नवत् चमक रहा है, प्रभु परम शांत, स्वरूप मग्न विराजमान हैं, जिनके सर्व शरीर में वीतरागता झलक रही है। श्री अरहंत भगवानके क्षुघा, तृषा, रोग, शोक, चिंता, रागद्वेष, जन्म, मरण आदि अठारह दोष नहीं हैं। प्रभुके आठ प्रातिहार्य (ऐश्वर्यसूचक वातावरण और सेवक) शोभायमान हैं-(1) अति मनोहर रत्नमय सिंहासन पर अन्तरिक्ष (आकाश) में विराजमान हैं (2) करोड़ों चन्द्रमा की ज्योति को मंद करनेवाला उनके शरीर की प्रभा का मण्डल उनके चारों तरफ प्रकाशमान हो रहा है (3) तीन चंद्रमा के समान तीन छत्र ऊपर शोभित होते हुए प्रभु तीन लोक के स्वामी हैं, ऐसा झलका रहे हैं। (4) हंस के समान अति श्वेत चमरों को दोनों तरफ देवगण ढार रहे हैं (5) देवोंके द्वारा कल्पवृक्षों के मनोहर पुष्पों की वर्षा हो रही है (6) परम रमणीक अशोक (शोक दूर करनेवाला) वृक्ष शोभायमान है उसके नीचे प्रभु का सिंहासन है (7) दुंदुभि बाजों की परम मिष्ट (मधुर) व गंभीर ध्वनि हो रही है (8) भगवान् की दिव्यध्वनि मेघ गर्जनाके समान हो रही है।
साधकों के लिए अर्हत् भगवान् को ध्यान योग्य बताते हुए तथा उनके दिव्य स्वरूप की प्रभुता को प्रकट करते हुए आदिपुराण में भी कहा गया है:
जो तेजोमय परमौदारिक (अत्यन्त सूक्ष्म) शरीर को धारण किये हुए हैं ऐसे केवल ज्ञानी अर्हन्त जिनेन्द्र ध्यान करने योग्य हैं। राग आदि अविद्याओंको जीत लेने से जो जिन कहलाते हैं, घातिया कर्मों के नष्ट होने से जो अर्हन्त (अरिहन्त) कहलाते हैं, शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होने से जो सिद्ध कहलाते हैं और त्रैलोक्यके समस्त पदार्थों को जानने से जो बुद्ध कहलाते हैं, जो तीनों कालों में होनेवाली अनन्त पर्यायों से सहित समस्त पदार्थों को देखते हैं इसलिए विश्वदर्शी (सबको देखनेवाले) कहलाते हैं और जो अपने ज्ञानरूप चैतन्य गुण से संसार के सब पदार्थों को जानते हैं इसलिए विश्वज्ञ (सर्वज्ञ) कहलाते हैं। ...इस प्रकार जो ऊपर कहे हुए लक्षणों से सहित हैं, परमात्मा हैं, परम पुरुष रूप हैं, परमेष्ठी हैं, परम तत्त्वस्वरूप हैं,