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अन्तर्मुखी साधना ईश्वर का बोध कराता है। या यों कहें कि प्रणव (अनाहत नाद या दिव्यध्वनि) के अभ्यास द्वारा ईश्वर को जाना जाता है। योगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है:
तस्य वाचकः प्रणवः । तज्जपस्तदर्थभावनम्।69
अर्थात् यह प्रणव उसका (ईश्वर का) वाचक (बोध करानेवाला), अर्थात् उस अव्यक्त या अप्रकट ईश्वर को प्रकट करनेवाला है। इसका जप और इसके अर्थ का चिन्तन या ध्यान करना चाहिए। ___ मन की दुविधा को दूर करने और परमार्थ का भेद पाने के लिए सुमिरन
और ध्यान को आवश्यक बताकर उसके आनन्द में मग्न होने और अपने जीवन को सफल बनाने की प्ररेणा नीचे दिये गये पदों में बड़े ही सुन्दर ढंग से दी गयी है:
(दुविधा कब जैहैं या मन की। कब निजनाथ निरंजन सुमिरौं तजि सेवा जन-जन की॥ कब रुचि सौं पीनै दृग चातक, बूंद अखयपद घन की। कब शुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूँ न ममता तनकी॥ कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दिढ़ता सुगुरु-वचन की।
कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धन की॥/ अर्थन मालूम, हमारे मन की यह दुविधा कब दूर होगी? वह अवसर कब आयेगा, जब मैं पामर मनुष्यों की गुलामी से छुटकारा पाकर अपने निर्विकार आत्मा-राम की अलख जगाऊँगा। न जाने कब हमारे नेत्र-चातक घनीभूत अक्षय पद के सरस बिन्दुओं का रुचि के साथ पान करेंगे? मैं समता भाव को धारण कर शरीर आदि के मोह को छोड़कर आत्म-सम्बन्धी शुभ ध्यान को कब धारण करूँगा? मेरे मन में-मेरी आत्मा में सद्गुरुओं की वाणी का संचार कब होगा? मैं उस वाणी पर कब दृढ़ रहूँगा? मैं सांसारिक-व्यावहारी धन की धारणा (धन-संग्रह की प्रवृत्ति) को भुलाकर भेद-विज्ञान से उत्पन्न होने वाले परमारथ (सच्चे धन) के सुख को कब प्राप्त करूँगा?/