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जैन धर्म : सार सन्देश
इस अनाहत मंत्र के ध्यानसे ध्यानी के अणिमा आदि सर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और दैत्यादिक सेवा करते हैं तथा आज्ञा और ऐश्वर्य होता है इसमें सन्देह नहीं है।
तत्पश्चात् क्रम से लक्ष्यों से (लखने योग्य वस्तुओं से) छुड़ाकर, अलक्ष्य में (अदृश्य में) अपने मन को धारण करते हुए ध्यानी के अन्तरंग में अक्षय (अविनाशी) तथा इंद्रियों के अगोचर ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकट होता है।
इस अनाहत तत्त्व अथवा शिवनामा (कल्याणकारी कहे जानेवाले) तत्त्व को अवलंबन करके मनीषीगण (ज्ञानीजन) अनन्त क्लेशवाले संसाररूपी वन से पार हो गये।
हे मुने! तू प्रणव नामा अक्षर का स्मरण कर अर्थात् ध्यान कर, क्योंकि यह प्रणव नामा अक्षर दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला को शान्त करने के लिए मेघ के समान है। ___ इस प्रणव से अतिनिर्मल शब्दरूप ज्योति अर्थात् ज्ञान उत्पन्न हुआ है और परमेष्ठी का वाच्य वाचक सम्बन्ध भी इसी प्रणव से होता है, अर्थात् परमेष्ठी तो इस प्रणवका वाच्य और यह परमेष्ठी का वाचक है। 67
वीणा आदि वाद्य-यन्त्रों के तार से उत्पन्न होनेवाले अति मधुर और सुरीले स्वर जैसे इस अनाहत नाद को सुनने का उपदेश देते हुए ज्ञानार्णव में फिर कहा गया है:
हे धीर पुरुष! यह ध्यान का तंत्र (तारवाले वाद्य-यन्त्रों जैसी ध्वनि को) सुनने से, यह चित्त को पवित्र करता है। तीव्ररागादिक का अभाव करके चित्तको विशुद्ध करता है तथा आचारण किया हुआ (अभ्यास कर लेने पर) मोक्ष देता है। यह योगीश्वरों का जाना हुआ है, इस कारण इसको तू आस्वाद, धार (धारण कर) वा सुन और ध्यान का आचरण कर68
पतञ्जलि ने भी अपने योगसूत्र में प्रणव को ईश्वर का वाचक (बोधक) कहा है, अर्थात् उनके अनुसार भी प्रणव, ईश्वर का वाचक है जो अपने वाच्य,