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________________ अन्तर्मुखी साधना 293 ऊपर दिये गये श्लोक में अनाहत देव को गूँजायमान और चन्द्र और सूर्य के समान देदीप्यमान (शीतल और दिव्य ज्योति के साथ प्रकाशमान ) – दोनों ही कहा गया है। --- 'देव' शब्द का प्रयोग ज्योतिस्वरुप भगवान् या परमात्मा के लिए किया जाता है। परमात्मा को स्वयंभू, अर्थात् स्वयं अपने से उत्पन्न होनेवाला माना जाता है। संसार के सभी पदार्थ किसी न किसी कारण से उत्पन्न होते हैं, पर भगवान् या परमात्मा का कोई कारण नहीं है । वे एक कारणरहित, अमूर्त या अव्यक्त चेतन सत्ता हैं। यह अव्यक्त या अप्रकट सत्ता अपने को अनाहत शब्द के रूप में प्रकट 1 है। जैन ग्रन्थों में इसका संकेत यह कहकर दिया गया है कि अनाहत शब्द या दिव्यध्वनि तीर्थंकर भगवान् के मुखकमल से निकलती है । भगवान् के इसी प्रकट रूप (अनाहत देव या दिव्यध्वनि) के सहारे जीव अमूर्त और अप्रकट भगवान् का दर्शन करता है और संसार - सागर से पार होता है। इसे प्रणव भी कहते हैं जो परमेष्ठी या परमात्मा का सूचक या बोध करानेवाला (वाचक) है, अर्थात् प्रणव को वाचक और परमेष्ठी या परमात्मा को उसका वाच्य (प्रणव द्वारा सूचित या ज्ञात होनेवाला) माना जाता है। इन बातों को समझाते हुए और अनाहत शब्द के ध्यान का उपदेश देते हुए तथा उसका फल बताते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: इस अनाहत नामा देवमें किया है स्थिर अभ्यास जिन्होंने ऐसे सत्पुरुष इस दिव्य जहाज के द्वारा संसाररूप घोर समुद्र को तिरकर शान्ति को प्राप्त हो गये हैं । एकाग्रताको प्राप्त होकर, चित्तको स्थिर (निश्चल) करने के लिए उसी अनाहत को अनुक्रम से (क्रम-क्रम से) सूक्ष्म ध्याता हुआ बालके अग्रभाग समान ध्यावै, अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शब्द का ध्यान करते हुए अन्त में अत्यन्त सूक्ष्म अनाहत शब्द का ध्यान करै । उसके पश्चात् गलित हो गये हैं समस्त विषय जिसमें ऐसे अपने मनको स्थिर करनेवाला योगी उसी क्षणमें ज्योतिर्मय साक्षात् जगत् को प्रत्यक्ष अवलोकन करता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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