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________________ 292 जैन धर्म : सार सन्देश कृपा तिहारी ऐसी होय, जामन मरन मिटावो मोय। बार-बार मैं विनती करूँ, तुम सेवा भव सागर तरूँ॥ नाम लेत सब दुःख मिट जाय, तुम दर्शन देख्या प्रभु आय। तुम हो प्रभु देवन के देव, मैं तो करूँ चरण तव सेव ॥ मैं आयो पूजन के काज, मेरो जन्म सफल भयो आज। नाथ तिहारे नाम तैं, अघ छिन माँहि पलाय। ज्यों दिनकर परकाश तें, अन्धकार विनशाय ॥5/ अनाहत ध्यान गुरु-स्वरूप का ध्यान करते हुए उनके द्वारा दिये गये मन्त्र का स्मरण (सुमिरन या जाप) करने के अभ्यास से अनाहत शब्द या नाद प्रकट होता है। जैन धर्म में अनाहत शब्द को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अनाहत देव कहा गया है तथा उसकी महिमा और फल बताते हुए उसका ध्यान करने का उपदेश दिया गया है। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: चन्द्रलेखासमं सूक्ष्मं स्फुरन्तं भानुभास्वरम्। अनाहताभिधं देवं दिव्यरूपं विचिन्तयेत् ॥ अर्थ-चन्द्रमा की रेखा के समान सूक्ष्म और सूर्यसरीखा देदीप्यमान, स्फुरायमान (गूंजायमान) होता हुआ तथा दिव्य रूप का धारक ऐसा जो अनाहत नाम का देव है उसका चिंतवन करै।66 जो शब्द बिना किसी आघात या टकराव के अपने-आप उत्पन्न होता है उसे अनाहत नाद कहते हैं । संसार के सभी शब्द किसी न किसी दो या दो से अधिक वस्तुओं के परस्पर टकराने अथवा एक वस्तु का दूसरी वस्तु के द्वारा ठोके, पीटे या आहत किये जाने से उत्पन्न होते हैं। इसलिए अनाहत शब्द या ध्वनि सभी सांसारिक शब्दों या आवाज़ों से भिन्न है। 'देव' शब्द से दिव्यता या प्रकाश का बोध होता है। इसलिए 'अनाहत देव' से तात्पर्य उस दिव्यध्वनि या शब्द से है जिसमें दिव्य आवाज़ के साथ दिव्य प्रकाश भी है। इसीलिए ज्ञानार्णव के
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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