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जैन धर्म : सार सन्देश पंचपरमेष्ठी के पाँच पवित्र नामों के स्मरण (सुमिरन या जप) का आधार देकर इसे अपने अन्तर में एकाग्र कर ध्यान करने का अभ्यास सिखाया जाता है। जैनधर्मामृत में इसे इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है:
आत्म-स्वरूप का चिंतवन या ध्यान बिना किसी आधार या आदर्श के सम्भव नहीं है। अतएव (साधक) पंचपरमेष्ठी को आदर्श मान करके उनके आधार से आत्म-स्वरूप का चिंतवन करता है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों को वीतरागतारूप परमपद में अवस्थित होने के कारण पंचपरमेष्ठी कहते हैं। वस्तुतः ये पंचपरमेष्ठी क्या हैं ? आत्मा की क्रमसे विकसित अवस्थाओं के नाममात्र हैं।...इस प्रकार साधकको आत्म-चिन्तन के लिए पंचपरमेष्ठी की उपासना करने का विशेषरूप से विधान किया गया है।
सम्यग्दृष्टि जीव जिन पंचपरमेष्ठियों का सदा स्मरण (सुमिरन) करता है, उनके नाम का जप और ध्यान करता है और जिनके आधार या आश्रयसे आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करना चाहता है, उनके नाम का नमस्कारात्मक मन्त्र अनादि मूलमन्त्र है।58
शिष्य जिस गुरु को पहले अपनी बाहरी आँखों (चर्मचक्षुओं) से देखता है, उन्हें ही वह उनके बताये पंचपरमेष्ठियों के नमस्कारात्मक मन्त्र-स्मरण (सुमिरन) के अभ्यास द्वारा आन्तरिक आँख (ज्ञानचक्षु) से देखने में समर्थ हो जाता है। रत्नाकर शतक में इस अत्यन्त उपयोगी मन्त्र के स्मरण और ध्यान की विधि को इस प्रकार समझाया गया है:
जिस प्रकार जौहरी मोती की केवल पाँच लड़ियों को देखकर समूचे मोती-समूह की परीक्षा कर लेता है उसी प्रकार पाँच मन्त्र से संबंध रखनेवाले अक्षर समूह को श्रेष्ठ मुनि ललाटमें ध्यान करके पहले चर्मचक्षुओं से देखकर पुनः ज्ञान-चक्षु से देखते हैं। उस समय उनको अपने स्वरूप का दर्शन होता है।