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________________ 287 अन्तर्मुखी साधना अर्थ जी भव्य (मोक्षार्थी) रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यान को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकारका कहा है। इन चारों भेदों में से पिण्डस्थ और पदस्थ नामक प्रथम दो भेदों पर पहले विचार करें। 'पिण्ड' का अर्थ है शरीर या देह । इसलिए इस प्रसंग में पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ अर्हत् या सन्त सद्गुर के देह स्वरूप (गुरु-मूर्ति) का ध्यान करना है। 'पद' शब्द से यहाँ मन्त्र का बोध होता है। इसलिए पदस्थ ध्यान का अर्थ है गुरु द्वारा दिये गये मन्त्र का स्मरण और ध्यान करना इसे स्पष्ट करते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश में कहा गया है: उपरोक्त चार भेदों में पिण्डस्थ ध्यान तो अर्हत भगवान् (या गुरुदेव) की शरीराकृति का विचार करता है और पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठी के वाचक (बोध करानेवाले) अक्षरों व मन्त्रों का अनेक प्रकार से विचार करना है। ज्ञानसार में भी कहा गया है : अरहंत (अर्हत् या सद्गुरु) की मूर्ति (स्वरूप) का चिंतवन करना सो पिण्डस्थ ध्यान है और पंचपरमेष्ठी के नमस्कारात्मक (णमोकार) मन्त्र जो कि पंचपरमेष्ठी के वाचक हैं तिनका ध्यान करना पदस्थ ध्यान है और गुरु उपदेशित ध्यान करै। ज्ञानार्णव में भी पदस्थ ध्यान को इन शब्दों में समझाया गया है: जिसको योगीश्वर पवित्र मंत्रों के अक्षर स्वरूप पदोंका अवलंबन करके चितवन करते हैं उसको योगीश्वरों ने पदस्थ ध्यान कहा है।57 मन के सदा बाहर दौड़ते रहने के कारण चित्तवृत्ति सदा चंचल बनी होती है। इसे एकाग्र करने और आत्मनिष्ठ बनाने के लिए शुरू में किसी अवलम्ब या आधार की जरूरत होती है। इसलिए इसे गुरु के स्वरूप के ध्यान और
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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