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________________ 286 जैन धर्म : सार सन्देश ___ वास्तव में ध्यान के अभ्यास में गुरु का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि इस विषय पर गहराई से विचार करें कि ध्यान किसका करना चाहिए, अर्थात् किसको ध्येय बनाना कल्याणकारी और फलदायक सिद्ध होता है, अथवा अर्हत् या सन्त सद्गुरु किसका ध्यान करने का उपदेश देते हैं तो यह पता चलेगा कि शुरू में अपने गुरु के देहस्वरूप का और उनके द्वारा दिये गये मन्त्र का, फिर उनके ज्योतिर्मय दिव्य स्वरूप का और अन्त में उनके रंग-रूप-आकार-रहित परमात्मस्वरूप का ध्यान करना ही साधक (ध्याता) के लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी कहा गया है। ___ ऊपर धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेदों के प्रसंग में हमने देखा है कि उनके भेदों का विश्लेषण विशेष रूप से ध्यान करनेवाले (ध्याता), ध्येय और ध्यान की अवस्था की मिली-जुली दृष्टि से किया गया है। यह विश्लेषण या व्याख्या शास्त्रीय और बौद्धिक दृष्टि से बिल्कुल उचित है। पर जब व्यावहारिक दृष्टि से इस विषय पर विचार किया जाता है कि ध्यान करनेवाले को किसका किस रूप में ध्यान करना चाहिए तब ध्यान को नीचे दिये गये चार भागों में विभक्त किया जाता है। पहले बौद्धिक दृष्टि से प्रशस्त (शुभ) ध्यान के बताये गये भेद और अभी व्यावहारिक दृष्टि से किये जानेवाले भेद परस्पर एक-दूसरे के अन्दर आ जाते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से किये गये चार प्रकार के भेदों को, जिन्हें गुरु प्रसाद (गुरुकृपा) से जाना जाता है, णाणसार (ज्ञानसार) में इस प्रकार बताया गया है: पिण्डस्थं च पदस्थं रूपस्थं गुरुप्रसादेन। अर्थात् पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ-ध्यान के इन भेदों को गुरु प्रसाद से जानना चाहिए। फिर ध्यान के एक और भेद का उल्लेख करते हुए इसी पुस्तक में कहा गया है: अन्य ग्रन्थों में रूपातीत ध्यान का भी वर्णन किया गया है। इन चारों भेदों का उल्लेख ज्ञानार्णव में इस प्रकार किया गया है: पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्। चतुर्दा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः॥
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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