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जैन धर्मः सार सन्देश वे ज्ञान और दर्शन दोनों अलब्धपूर्व हैं, अर्थात् पहले कभी प्राप्त नहीं हुए थे। सो उनको पाकर, उसी समय वे केवली भगवान् समस्त लोक अलोक को यथावत् देखते और जानते हैं। उन सर्वज्ञ भगवान् का परम ऐश्वर्य, चारित्र और ज्ञान के विभव का जानना और कहना बड़े बड़े योगियों के भी अगोचर है।45
केवली होने के बाद और शरीर त्यागने से पहले के कुछ समय के अन्दर ही केवली पुरुष अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों को पूर्ण करते हैं और तब वे मोक्ष धाम को प्राप्त करते हैं।
आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल नामक चारों ध्यानों का फल बताते हुए णाणसार (ज्ञानसार) में स्पष्ट कहा गया है:
आर्तध्यान से जीव की तिर्यंच् (निम्न पशु-पक्षी की) गति होती है, रौद्रध्यान से नरकगति, धर्मध्यान से देवगति और शुक्लध्यान से मोक्ष गति की प्राप्ति होती है।46
गुरु-मूर्ति-ध्यान और मन्त्र-स्मरण मनुष्य मन द्वारा संचालित इन्द्रियों के माध्यम से संसार के बाहरी विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है और उसका ज्ञानं साधारणतया उन्हीं विषयों तक सीमित रहता है। इन्द्रियाँ केवल बाहर में ही काम करने की क्षमता रखती हैं। इसलिए मन और इन्द्रियों की दौड़ सदा बाहर ही लगी रहती है। केवल इस बाहरी या ऊपरी ज्ञान के आधार पर मनुष्य संसारी, अर्थात् परमार्थ की दृष्टि से अनाडी, बना रहता है। वह सदा सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति के प्रयत्न में लगा रहता है और अपना सारा जीवन अनुचित और अनावश्यक कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों में फँसकर ही गँवा देता है। वह नहीं जानता कि उसके शरीर के अन्दर ही सच्चे ज्ञान और आनन्द का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। इन्द्रियों की बाहरी दौड़ को बन्द करने और मन को अन्तर में एकाग्र करने पर ही वह अन्तर्मुखी बन सकता है और अन्तर्मुखता से ही ध्यान की शुरूआत होती है। ध्यान के विकास द्वारा ही पूर्ण ज्ञान या सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है और पूर्ण ज्ञान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस ज्ञान को प्राप्त करने का एकमात्र साधन ध्यान ही है।