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________________ 283 अन्तर्मुखी साधना की क्रिया तो शान्त हो चुकी होती है, पर काया की सूक्ष्म क्रिया बाक़ी रहती है। व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान में काया की यह सूक्ष्म क्रिया भी मिट जाती है और ध्याता अचल और निष्कम्प होकर अपने ध्यान में पूर्णरूप से लीन हो जाता है। ज्ञानार्णव में शुक्ल ध्यान के इन चारों भेदों को इस प्रकार समझाया गया है: इन चार ध्यानों के आदि के दो शुक्ल ध्यानों में पहला शुक्लध्यान वितर्क, विचार और पृथक्त्वसहित है। इसलिए इसका नाम पृथक्त्ववितर्कविचार है और दूसरा इससे विपर्यस्त (विपरीत) है। दूसरा शुक्लध्यान वितर्कसहित है, परन्तु विचाररहित है और एकत्व पदसे लाञ्छित अर्थात् सहित है। इसलिए इसका नाम मुनियों ने एकत्ववितर्काविचार (एकत्व वितर्क अविचार) कहा है। यह ध्यान अत्यन्त निर्मल है। तीसरे शुक्ल ध्यान का सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ऐसा सार्थक नाम है। इसमें उपयोग की (चेतना सहित होनेवाली मन और वचन की) क्रिया नहीं है। परन्तु कायकी क्रिया विद्यमान है। यह कायकी क्रिया घटते-घटते जब सूक्ष्म रह जाती है तब यह तीसरा शुक्लध्यान होता है, और इससे इसका सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति (सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति) ऐसा नाम है और आर्यपुरुषों ने चौथे ध्यान का नाम समुच्छिन्नक्रिय अर्थात् व्युपरतक्रियानिवृत्ति ऐसा कहा है। इसमें कायकी क्रिया भी मिट जाती है।43 सभी कर्मों का नाश ध्यान द्वारा ही होता है। आदिपुराण में स्पष्ट कहा गया है: उत्तम ध्यान से ही कर्मों का क्षय होता है। जिस प्रकार मन्त्र की शक्ति से समस्त शरीर में व्याप्त हुआ विष खींच लिया जाता है उसी प्रकार ध्यान की शक्ति से समस्त कर्मरूपी विष दूर हटा दिया जाता है। समस्त कर्मों के हट जाने से केवली पुरुष को लोक और अलोक का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। उनके ज्ञान की गहराई और गूढता योगीश्वरों के लिए भी अगम्य है। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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