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जैन धर्म: सार सन्देश
कि साथ जाता है और जहाँ जाता है वहीं रक्षा करता है। यह नियत रूप से हित ही करता है और दुःख का नाश करके सुख देता है। ऐसे धर्मरूपी मित्र का मैंने सेवन ही नहीं किया और जिनका सेवन मैंने मित्र समझकर किया उनमें से कोई एक भी साथ नहीं आया। इसलिए इस लोक के संस्थान के चितवन के बाद (या इसके फलस्वरूप) ध्याता अपने शरीर के अन्दर कर्मरहित ज्योतिर्मय पुरुषस्वरूप अति निर्मल आत्मा का चिंतवन करै।।1
धर्म ध्यान द्वारा आत्मा को शुद्ध कर ध्याता शुक्ल ध्यान में प्रवेश करता है। विकारों के दूर हो जाने से आत्मा का स्वरूप निर्मल, पवित्र और स्वच्छ (शुक्ल) हो जाता है। उस निर्मल आत्मा द्वारा किये जानेवाले ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं, जैसा कि ज्ञानार्णव में कहा गया है:
पुरुषों के (क्रोध मान, माया, लोभ आदि) कषायरूपी मल के क्षय (नष्ट) होने से अथवा उपराम (शान्त) होने से यह शुक्लध्यान होता है। इसलिए उस ध्यान को जानने वाले आचार्यों ने उस शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार उसका 'शुक्ल' ऐसा सार्थक नाम रखा है।42
इसके पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चार भेद हैं। इनमें से प्रथम दो श्रुतज्ञान अर्थात् आगम या प्रामाणिक सद्ग्रन्थों का आधार लेकर किये जाते हैं, पर अन्त के दो शुक्लध्यान में कोई आलम्बन या आधार नहीं होता। वे सर्वज्ञ केवली अर्थात केवली सन्त द्वारा स्वतः किये जाते हैं।
आगम या शास्त्र को वितर्क कहते हैं। पृथक्त्वविर्तक नामक ध्यान में वितर्क की अनेक प्रकारता (पृथक्त्व) रहती है। वितर्क की अनेकता होने के कारण विचार की भी अनेकता होती है। पर एकत्ववितर्क नामक ध्यान में वितर्क के एकरूप होने के कारण विचार नहीं उडते और ध्यान में एकता या निश्चलता आ जाती है। ध्याता का ध्यान एकभाव में स्थिर रहता है। इस ध्यान से ध्याता केवली (सर्वज्ञ) बन जाता है। केवली पुरुष द्वारा किये जानेवाले दो अन्य ध्यानों को, जैसा ऊपर कहा गया है, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति कहते हैं। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान में मन और वचन