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अन्तर्मुखी साधना
281 आदिपुराण में विपाकविचय धर्मध्यान को इन शब्दों में समझाया गया है:
शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त हुए कर्मों के उदय से संसाररूपी आवर्त (चक्कर) की विचित्रता का चिंतवन करनेवाले मुनिके जो ध्यान होता है उसे आगम के जाननेवाले गणधरादि देव विपाकविचय नाम का धर्म ध्यान मानते हैं। ...क्योंकि कर्मों के विपाक (उदय) को जाननेवाला मुनि उन्हें नष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है, इसलिए मोक्षाभिलाषी मुनियों को मोक्ष के उपायभूत इस विपाक विचय नाम के धर्म ध्यान का अवश्य ही चिंतवन करना चाहिए।40
धर्म ध्यान के चौथे भेद संस्थान विचय में यह विचार किया जाता है कि जीव अपने कर्मों के अनुसार किस तरह अनेक प्रकार के द्वीपों, स्वर्गों और नरकों में सुख-दुःख भोगता है। नरकों की असह्य पीड़ा से छटपटाते जीव की उस समय कोई पुकार सुननेवाला नहीं होता। केवल धर्म ही लोक-परलोक में अपना सहायक होता है। इसलिए साधक आत्मध्यान द्वारा अपने कर्मरहित परम निर्मल आत्मतत्त्व को पहचानने का प्रयत्न करता है। संस्थानविचय धर्म ध्यान का यही उद्देश्य है।
ज्ञानार्णव में संस्थानविचय धर्मध्यान को इस प्रकार समझाया गया है:
संस्थानविचय धर्मध्यान में लोक का स्वरूप विचारा जाता है। यह लोक ऊर्ध्व (ऊपर), मध्य, अधोभाग (नीचे के भाग) से तीन भुवनों को धारण करता है। हिंसादि पाँच पाप या सात व्यसनों के सेवन में लगे रहनेवाले जीव घोर नरकों में जाकर दुःख भोगते हैं। जो रोग असह्य हैं
और जिनकी कोई चिकित्सा नहीं है, ऐसे समस्त प्रकार के रोग नरकों में रहनेवाले जीवों के शरीर के रोम-रोम में होते हैं। वे नारकी जीव उस नरक भूमि को अपूर्व (जैसा पहले कभी नहीं देखा था वैसा) भयानक देखकर किसी की शरण लेने की इच्छा से चारों तरफ देखते हैं, परन्तु वहाँ कोई सुख का कारण नहीं दीखता और न कोई शरण ही प्रतीत होता है। फिर विचारता है कि यह धर्मरूप बन्धु ही ऐसा है