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जैन धर्म: सार सन्देश से विचार करना, बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं), क्षमा, शौच, सत्य, संयम आदि दश धर्म और धर्म के अन्य अंगों को ग्रहण कर चित्तशुद्धि करना तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाकर कर्मों को समूल नष्ट करने के लिए ध्यान करना अपाय विचय धर्म ध्यान कहलाता है। आदिपुराण में इसे इस प्रकार समझाया गया है:
यह संसाररूपी समुद्र मानसिक, वाचनिक, कायिक अथवा जन्म-जरामरण से होने वाले, तीन प्रकार के सन्तापों से भरा हुआ है। इसमें पड़े हुए जीव निरन्तर दुःख भोगते रहते हैं। उनके दुःख का बार-बार चितवन करना सो अपायविचय नामका धर्मध्यान है। अथवा उन दुःखों को दूर करने की चिन्ता से उन्हें दूर करनेवाले अनेक उपायों का चितवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दश धर्म आदि का चिंतवन करना इसी अपायविचय नाम के धर्म ध्यान में शामिल समझना चाहिए।38 ज्ञानार्णव में अपाय विचय को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है: जिस ध्यान में कर्मों का अपाय (नाश) हो, तथा जिसमें चिंतवन किया जाय कि इन कर्मों का नाश किस उपाय से होगा, उस ध्यान को बुद्धिमान पुरुषों ने अपायविचय कहा है। __ फिर ऐसा विचारै कि जिस प्रकार अन्य धातु (पाषाण) में मिला हुआ कंचन (सोना) अग्नि से शोधकर, शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार मैं प्रबल ध्यानरूप अग्नि द्वारा कर्मों के समूह को नष्ट करके, आत्मा को कब शुद्ध करूँगा? / मोक्षमार्गमें विघ्नको, मिटै कौन विधि सोय।।
इमि चितै ज्ञानी जबै, विचय अपाय सु होय॥", कर्मों के अनुसार फल उत्पन्न होने को ही कर्मविपाक कहते हैं। धर्म ध्यान के तीसरे भेद विपाकविचय में मोक्षार्थी कर्मों से छुटकारा पाने के उपाय में दृढ़ता से लगे रहने के लिए बार-बार ध्यान करता है।