SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 279 अन्तर्मुखी साधना के आधार पर ही विचार किया जा सकता है। सद्ग्रन्थों में बताये गये अनेक विषयों पर उन्हें सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करनेवाला समझकर उनका चिंतवन करना आज्ञा विचय कहलाता है। इसे समझाते हुए आदिपुराण में कहा गया है: अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ को विषय करनेवाला जो आगम (सद्ग्रन्थ या शास्त्र) है उसे आज्ञा कहते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के विषय से रहित केवल श्रद्धान (श्रद्धा या विश्वास) करने योग्य पदार्थ में एक आगम की ही गति होती है। भावार्थ-संसार में कितने ही पदार्थ ऐसे हैं जो न तो प्रत्यक्ष से जाने जा सकते हैं और न अनुमान से ही। ऐसे सूक्ष्म, अन्तरित (छिपे हुए) और दूरवर्ती पदार्थों का ज्ञान सिर्फ आगम (सद्ग्रन्थ) के द्वारा ही होता है। जो परम उत्कृष्ट है, सूक्ष्म है और आप्त (सर्वज्ञाता हितोपदेशक) के द्वारा कहा हुआ है ऐसे प्रवचन अर्थात् आगम को सत्यार्थ रूप मानता हुआ मुनि आगम में कहे हुए पदार्थों का ध्यान करे। इस प्रकार ध्यान करने को आज्ञाविचय नाम का धर्म ध्यान कहते हैं । आज्ञा विचय ध्यान को ज्ञानार्णव में इस प्रकार समझाया गया है: जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को अग्रसर (प्रधान) करके पदार्थों को सम्यक्-प्रकार चितवन करै (विचारै) सो मुनीश्वरों ने आज्ञाविचय नाम धर्मध्यान कहा है। / श्रीजिन-आज्ञा में कह्यो, वस्तुस्वरूप जु मानि। चित्त लगावै तासुमें, आज्ञाविचय सु जानि॥"/ धर्म ध्यान के दूसरे भेद अपाय विचय का अर्थ है कर्मों के अपाय (नाश) के सम्बन्ध में विचार करना। जीव अज्ञानवश अपने विकारयुक्त कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों के कारण जन्म-मरण के चक्र में पड़कर दुःख भोग रहा है। इसलिए इन कर्मों के नाश के उपाय के विषय में गम्भीरता
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy