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जैन धर्म: सार सन्देश ___ इसलिए मोक्षार्थी को आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान को त्यागकर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को ही ग्रहण करना चाहिए।
धर्म ध्यान किसे कहते हैं और इसकी क्या आवश्यकता है? जो ज्ञान हमें अपनी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है क्या उससे हमारा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता? यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि इन्द्रियों और मन द्वारा सांसारिक पदार्थों का जो कुछ ज्ञान हमें मिलता है उससे इन पदार्थों की वास्तविकता या असलियत की जानकारी नहीं होती। इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे विषय भी हैं जो इतने सूक्ष्म, दूर और गुप्त हैं कि इन्द्रियों और मन द्वारा उनकी जानकारी सम्भव नहीं है और इन सब की वास्तविकता की जानकारी हुए बिना हम विषय-वासनाओं और सांसारिक मोह से छूट नहीं सकते। इसलिए इन पदार्थों की वास्तविकता की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। यह जानकारी केवल सही आन्तरिक ध्यान द्वारा ही हो सकती है। राग-द्वेष को त्यागकर साम्यता का अभ्यास करने के लिए जिस ध्यान को साधक ध्याता है वही सही आन्तरिक ध्यान है, क्योंकि साम्यावस्था में ही पदार्थों की यथार्थ जानकारी प्राप्त होती है। उसी ध्यान को जैन धर्म में धर्म ध्यान कहते हैं। आदिपुराण में इसे इन शब्दों में व्यक्त किया गया है:
वस्तु के स्वभाव (यथार्थ स्वरूप) को धर्म कहते हैं और जिस ध्यान में वस्तु स्वभाव का चिंतवन किया जाता है उसे धर्म ध्यान कहते हैं।
ज्ञानसार में धर्म ध्यान को इस प्रकार समझाया गया है: राग-द्वेष को त्यागकर अर्थात् साम्यभाव से जीवादि पदार्थों का, वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं, वैसे-वैसे ध्यान या चिंतवन करना धर्म ध्यान है।
धर्म ध्यान के आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय नामक चार भेद हैं।
विचय का अर्थ है विचार करना। जिन विषयों को साधारणतया नहीं जाना जा सकता उन विषयों पर सर्वज्ञ सद्गुरु या जिनेन्द्र देव के उपदेश या आज्ञा