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जैन धर्म की प्राचीनता
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जैन परम्परा के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ या अरिष्ट नेमि गीता की शिक्षा देनेवाले द्वारिका नरेश कृष्ण के चचेरे भाई थे। कृष्ण राजा वसुदेव और रानी देवकी के पुत्र थे और अरिष्टनेमि के पिता राजा समुद्रविजय कृष्ण के पिता वसुदेव के भाई थे। अरिष्टनेमि की माता का नाम रानी शिवा था।" ___ अरिष्टनेमि या नेमिनाथ बचपन से ही अत्यन्त कोमल स्वभाव के थे। किसी जीव की हिंसा की कल्पना से ही उनका हृदय पिघल उठता था। युवावस्था प्राप्त करने पर जब उन्हें बड़े ही ठाट-बाट और धूम-धाम के साथ राजा उग्रसेन की पुत्री राजकुमारी राजमती (या राजुल कुमारी) से विवाह के लिए ले जाया जा रहा था तो वहाँ पहुँचने से पहले उनकी दृष्टि, बाँधकर बन्द रखे गये उन अत्यन्त दु:खी पशु-पक्षियों पर पड़ी जिन्हें उनके विवाह के अवसर पर मारकर मांसाहारी मेहमानों को खिलाया जाना था। यह जानकर कि उनके विवाह के कारण इतने पशु-पक्षियों की हत्या की जायेगी, उनका हृदय करुणा से विह्वल हो उठा। उन्होंने उसी समय अपने क़ीमती आभूषणों को उतारकर अपने सारथी को सौंप दिया और अपने विवाह का इरादा बदलकर वहाँ से चलते बने। उन्होंने जैन धर्म अपनाकर कठिन साधना की और केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना सारा जीवन जैन धर्म के प्रचार में लगा दिया। अन्त में गुजरात में जूनागढ़ के गिरनार पर्वत पर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। जब राजकुमारी राजमती को अपने होनेवाले पति के संन्यास लेने की बात मालूम हुई तो उसने भी संन्यास ग्रहण कर जैन धर्म अपना लिया और कठिन साधना द्वारा अपने मनुष्य-जीवन को सफल बनाया। ___ मथुरा से प्राप्त अभिलेखों में नेमिनाथ के नाम का उल्लेख पाया जाता है। कुछ ऐसी आकृतियाँ भी मिली हैं जिनके नीचे नेमिनाथ का नाम स्पष्ट रूप से अंकित है।12 ___ इन बातों से पता चलता है कि जैन तीर्थंकर नेमि नाथ या अरिष्ट नेमि कृष्ण के समकालीन एक ऐतिहासिक पुरुष थे।
जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का समय ईसा पूर्व 877-777 माना जाता है। वे काशी के राजा विश्वसेन 13 और रानी वामादेवी के पुत्र थे। कठिन साधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर इन्होंने भी अपना बहुत समय जैन धर्म के