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________________ जैन धर्म : सार सन्देश ___ हम जानते हैं कि प्राचीन काल से ही तीर्थंकर के लिए अर्हत्, अर्हन् या अर्हन्त शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। इसी प्रकार शिव के लिए रुद्र शब्द का भी प्रयोग पाया जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र में अर्हन् को रुद्र रूप में स्वीकार किया गया है: अर्हन् विभर्षि सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम्। अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति॥' भावार्थः हे अर्हन् ! तुम वस्तु स्वरूप धर्मरूपी बाणों को, उपदेशरूपी धनुष को, तथा आत्म चतुष्टयरूप आभूषणों को, धारण किये हो। हे अर्हन्! आप संसार के सब प्राणियों पर दया करते हो। हे कामादिक को जलानेवाले! आपके समान कोई रुद्र नहीं है। इस तरह से कुछ प्रमाणों के आधार पर कुछ लोग ऋषभदेव, शिव या रुद्र को एकरूप मानते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले सिन्धु घाटी में जैन और हिन्दू धर्म अपने-अपने पूर्व रूप में मौजूद थे। पर उस समय तक उनको अलग-अलग जैन और हिन्दू धर्म का नाम नहीं दिया गया था। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति जैन धर्म के प्रचलित होने के बाद ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में हुई। इसलिए बौद्ध ग्रन्थों में ऋषभदेव के अतिरिक्त पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, विमल नाथ, धर्म नाथ, नेमि नाथ आदि अन्य जैन तीर्थंकरों के नामों का भी उल्लेख मिलता है।10 इस प्रकार अभी तक की जानकारी के मुताबिक हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का समय वैदिक सभ्यता के प्रारम्भ होने के पहले रहा होगा, पर उनके समय को निश्चित रूप से निर्धारित कर पाना सम्भव नहीं लगता। दूसरे तीर्थंकर अजित नाथ से लेकर इक्कीसवें तीर्थंकर नमि नाथ तक के सम्बन्ध में कोई विश्वसनीय जानकारी प्राप्त नहीं होती। इसलिए यहाँ अब केवल बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दी जाती है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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