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जैन धर्म: सार सन्देश ___अज्ञानी जीव राग, द्वेष और मोह के वश होकर अशुभ या खोटे चिन्तन में लगे रहते हैं। इस प्रकार के चिन्तन से उनकी विषयों की तृष्णा बढ़ती है। उनका सांसारिक विषय-सम्बन्धी यह खोटा ध्यान ही अप्रशस्त ध्यान कहा जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है:
जिसने वस्तु का यथार्थ स्वरूप नहीं जाना तथा जिसकी आत्मा रागद्वेष मोह से पीड़ित है ऐसे जीव की स्वाधीन (उपदेश के बिना मनमानी) प्रवृत्ति को अप्रशस्त ध्यान कहा जाता है।29
अप्रशस्त ध्यान का पहला भेद आत ध्यान है। आर्त का अर्थ है दुःखी। दुःखी मनुष्यों द्वारा दुःख की अवस्था में किया गया ध्यान आर्त ध्यान कहलाता है। इसके चार भेद हैं। पहला इष्ट वस्तु के न मिलने पर उसकी प्राप्ति के लिए, दूसरा अनिष्ट वस्त के मिलने पर उसे हटाने के लिए, तीसरा रोग आदि होने पर उसे दूर करने के लिए और चौथा दूसरों के भोग और ऐश्वर्य को देखकर उन भोगों को भोगने के लिए किया जाता है। इन्हें क्रमशः इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, पीड़ा चिंतवन और निदान प्रत्यय (निदान बन्ध) आर्त ध्यान कहते हैं।
णाणसार (ज्ञानसार) में इन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया गया है: अपनी प्रिय वस्तु जो धन कुटुम्बादि तिनके वियोग में उनके मिलने . के लिए बारबार चितवन करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। अपने को दुःखदायी दरिद्रता, शत्रु आदि के संयोग में वियोग के लिए चिंतवन करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। अपने शरीर में रोग इत्यादि होने पर उनके दूर होने के लिए बारबार चितवन करना पीड़ा चिंतवन आर्तध्यान है और भावी सांसारिक सुखों के लिए चिंतवन करना निदान बंध आर्तध्यान है।30
अप्रशस्त ध्यान का दूसरा भेद रौद्र ध्यान है। रुद्र अर्थात् क्रूर व्यक्तियों का क्रूर कर्मों के सम्बन्ध में बार-बार क्रूर चिन्तन करना रौद्र ध्यान कहलाता है। इसके भी चार भेद हैं। इन्हें समझाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: