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अन्तर्मुखी साधना
योग, ध्यान, समाधि, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चञ्चलता रोकना, स्वान्त निग्रह अर्थात् मन को वश में करना, और अन्त: संलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचक शब्द हैं। 26
ध्यान में गहराई आने पर ध्येय पदार्थ का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है । इस प्रकार आत्मध्यान द्वारा आत्मा के स्वरूप का अनुभव प्राप्त हो जाता है जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है । इसीलिए आत्मध्यान ही जैन धर्म में मुक्ति का कारण माना जाता है, जैसा कि आदिपुराण में कहा गया है:
जो किसी एक ही वस्तु (आत्मा) में परिणामों की स्थिर और प्रशंसनीय एकाग्रता होती है उसे ही ध्यान कहते हैं, ऐसा ध्यान ही मुक्ति का कारण होता है। 27
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ध्यान अन्तर्मुखी साधन है। इसलिए इसके लिए मन को अन्तर्मुख बनाना आवश्यक है। जबतक इन्द्रियाँ बाहरी विषयों में लगी रहती हैं तबतक न मन अन्तर्मुख हो सकता है और न एकाग्रता ही आ सकती है। इसलिए माला फेरने या अन्य बहिर्मुखी क्रियाओं में लगने को ध्यान करना नहीं कह सकते । राजवार्तिक में स्पष्ट कहा गया है:
माला जपना आदि ध्यान नहीं है, क्योंकि इसमें एकाग्रता नहीं है । गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है। 28
ध्यान के भेद
'ध्यान' शब्द को व्यापक अर्थ में ग्रहण करने के कारण जैन धर्म में इसके अनेक भेद किये गये हैं । सबसे पहले अप्रशस्त (अशुभ) ध्यान को प्रशस्त (शुभ) ध्यान से अलगकर अप्रशस्त ध्यान को त्यागने और प्रशस्त ध्यान को अपनाने के लिए कहा गया है। अप्रशस्त और प्रशस्त इन दोनों के दो-दो भेद कहे गये हैं । अप्रशस्त ध्यान के आर्त्त और रौद्र नामक दो भेद हैं और प्रशस्त ध्यान के धर्म और शुक्ल नामक दो भेद हैं। फिर इन चारों में से प्रत्येक के चार-चार भेद बताये गये हैं। इन सब पर हम यहाँ संक्षेप में विचार करेंगे ।