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जैन धर्म: सार सन्देश
सांसारिक विषयों के प्रति राग, द्वेष और मोह ही चित्त में आकुलता, क्षोभ या बाधा उत्पन्न करते हैं। इसलिए ध्यान की सिद्धि के लिए इनसे ऊपर उठना आवश्यक है। यही कारण है कि पंचास्तिकाय में कहा गया है: जिसे मोह और रागद्वेष नहीं हैं तथा मन वचन कायरूप योगों (क्रियाओं) के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभ को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि प्रकट होती है। इसी प्रकार अनगारधर्मामृत में कहा गया है: इष्टानिष्ट बुद्धि (वस्तु के इच्छित और अनिच्छित होने के भाव) के मूल मोह का छेद (नाश) हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। ध्यान-सम्बन्धी इन कथनों से स्पष्ट है कि चित्त की एकाग्रता और स्थिरता को ही ध्यान कहा जाता है। इस एकाग्रता का क्रमिक विकास होता है। प्रारम्भ में चित्त कुछ ही क्षणों के लिए एकाग्र होता है। धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक प्रयत्न जारी रखने पर एकाग्रता में कुछ अधिक निखार और टिकाव होने लगता है और अन्त में एकाग्रता इतनी गहरी और स्थिर हो जाती है कि यह तल्लीनता में बदल जाती है। तब ध्याता (ध्यान करनेवाला) ध्येय (ध्यान किये जानेवाले पदार्थ) में लीन हो जाता है, अर्थात् ध्याता ध्येय से एकांकार हो जाता है। इस तरह मुख्य रूप से एकाग्रता की ये तीन अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें पतञ्जलि ने अपने योगशास्त्र में क्रमश: धारणा, ध्यान और समाधि कहा है। पर जैन धर्म में 'ध्यान' शब्द को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाता है जिसमें एकाग्रता की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर पूर्ण तल्लीनता तक की सभी अवस्थाएँ शामिल हैं। यही कारण है कि जैन धर्म में 'योग' अर्थात् चित्तवृत्तिनिरोध और 'समाधि' अर्थात् ध्याता और ध्येय की एकरूपता-दोनों ही शब्द 'ध्यान' शब्द के पर्यायवाची (समानार्थक) माने गये हैं, जैसा कि आदिपुराण में ध्यान के पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख करते हुए कहा गया है: