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________________ अन्तर्मुखी साधना 273 तन, मन और वचन को पूर्ण स्थिर करने पर ही आत्मा की अपने अन्दर में सुनने और देखने की शक्ति एकाग्र होती है और इस पूर्ण एकाग्रता के एक क्षण में जो गहरा अनुभव प्राप्त होता है उसे कल्प भर (अनेक महायुगों तक) की भी चंचल वृत्तिवाली साधना द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। ध्यान की गहरी अवस्था में ध्याता (ध्यान करनेवाला) शरीर में रहते हुए भी शरीर और संसार से असंग, अतीत या अनासक्त हो जाता है। इसे समझाते हुए कन्हैयालाल लोढ़ा कहते हैं: शरीर में रहते हुए शरीर से असंग होना, शरीर से अनासक्त होना, अर्थात् . कायोत्सर्ग करना (शरीर से 'मैं-मेरी' की भावना को निकालना) मुक्ति की साधना है। ...मानव मात्र में शरीर व संसार से असंग, अतीत होने की क्षमता है-यही मानव भव (जन्म) की विशेषता है। सर्वसंग रहित होने का प्रयास ही ध्यान-साधना है। जब ध्यान में पूर्ण आत्मलीनता की अवस्था प्राप्त हो जाती है और आत्मा शरीरादि के प्रति मैं-मेरी की भावना को त्यागकर शरीरादि से अनासक्त हो जाती है तब इसे अपने अन्दर ही परमात्मा का दर्शन प्राप्त हो जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए सागरमल जैन कहते हैं: ध्यान में आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा को जानती है। ...ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते हैं, इसे ही आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान जीव में 'जिन' का, आत्मा से परमात्मा का दर्शन कराता है। जब एकाग्रता भंग होती है तो ध्यान टूट जाता है। इसलिए ध्यान के लिए चित्त को विक्षेपरहित या बाधारहित रखना आवश्यक होता है। इसी दृष्टि से ज्ञानार्णव में ध्यान को इस रूप में समझाया गया है: योगीशवर चित्त के आकुलतारहित (विक्षेप या बाधा से रहित) होने अर्थात् क्षोभरहित होने को ही ध्यान कहते हैं।23
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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