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जैन धर्मः सार सन्देश ___ सबसे पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि जैन धर्म में ध्यान किसे कहते हैं। जैन धर्म के आदिपुराण के अनुसार "तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में जो चित्त का निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहते हैं।"17 या यों कहें कि "जो चित्त का परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और जो चंचल रहता है उसे अनुप्रेक्षा, चिन्ता, भावना अथवा चित्त कहते हैं।" 18
इसी बात को ज्ञानार्णव में इस प्रकार कहा गया है। एकाग्र चिन्ता के रोधने (रोकने) को पंडित जन ध्यान कहते हैं। जो एक चिन्ता (चित्तवृत्ति) का निरोध है-एक ज्ञेय में ठहरा हुआ है वह तो ध्यान है और इससे भिन्न है सो भावना है। उसे अनुप्रेक्षा अथवा अर्थचिन्ता भी कहते हैं। इस प्रकार चित्त को एकाग्रभाव से इष्ट पदार्थ में ठहराये रखना ही ध्यान का सामान्य लक्षण है। यहाँ मुख्य बात है चित्त को एकाग्र करके टिकाना। 'अग्र' का अर्थ है मुख। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है, जो अनेक ओर दौड़ता रहता है वह चंचल कहलाता है। चित्त को बड़े यत्न के साथ अन्य विषयों से हटाकर एक इष्ट विषय में ठहराये रखना ही चित्त को एकाग्रभाव से टिकाना है और यही ध्यान का स्वरूप है।
अपने अन्तर में चित्त को एकाग्र भाव से पूरी तरह टिकाने के लिए तन, मन और वचन–तीनों को बिल्कुल निश्चल या स्थिर रखना आवश्यक है। इन तीनों की क्रियाओं को रोकने या बन्द करने को जैन धर्म में त्रियोग का निरोध करना कहते हैं। इस त्रियोग-निरोध से ही आत्मलीनता की अवस्था प्राप्त होती है। इसे द्रव्यसंग्रह में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है:
मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवेज्झाणं॥ अर्थ-हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ । बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध । करने से तू स्थिर हो जायेगा-तेरी आत्मा आत्मरत (आत्मलीन) हो । जायेगी। यही परम ध्यान है।20,