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अन्तर्मुखी साधना
मोक्ष कर्मों के क्षय से ही होता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है और वह सम्यग्ज्ञान ध्यान से सिद्ध होता है, अर्थात् ध्यान से ज्ञान की एकाग्रता होती है। इस कारण ध्यान ही आत्मा का हित है। हे आत्मन्! यदि तू कष्ट से पार पाने योग्य संसार नामक महापंक (कीचड़) से निकलने की इच्छा रखता है तो ध्यान में निरन्तर धैर्य क्यों नहीं धारण करता?14 इसी बात की पुष्टि करते हुए तत्त्वभावना में भी कहा गया है:
आत्मध्यान ही परमोपकारी जहाज़ है। इसीपर चढ़के भव्य जीव संसार पार हो जाते हैं। अतएव ज्ञानी को आत्मध्यान का ही अभ्यास करना चाहिये। वास्तव में आत्मध्यान से ही आत्मा की शुद्धि होती है, आत्मध्यान से ही आनन्द की प्राप्ति होती है, आत्मध्यान से ही कर्मों की निर्जरा होती है, आत्मध्यान से ही कर्मों का संवर होता है, आत्मध्यान से ही मोक्ष होता है। इसलिए हितेच्छु को निरन्तर आत्मध्यान का अभ्यास परम निश्चिन्त होकर करना योग्य है। 15
णाणसार (ज्ञानसार) में भी बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ध्यान का अभ्यास किये बिना आत्मा का अनुभव प्राप्त करना सम्भव नहीं है:
जैसे पाषाण (पत्थर) में से सुवर्ण (सोना), काष्ठ (काठ) में से अग्नि बिना प्रयोग (युक्ति) के नहीं दीखते तैसे ध्यान बिना आत्मा के दर्शन नहीं होते। ध्यान से ही आत्मा का शुद्ध प्रतिभास (अनुभव) होता है।16
ध्यान का स्वरूप ध्यान की अनिवार्यता को समझते हुए ध्यान सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का संक्षिप्त पर सही उत्तर स्पष्ट रूप से जान लेना आवश्यक है। ध्यान के सम्बन्ध में स्वाभाविक रूप से ऐसे प्रश्न उठते हैं: जैन धर्म के अनुसार ध्यान कहते किसे हैं ? ध्यान कितने प्रकार का होता है? उसकी यथार्थ जानकारी किस प्रकार प्राप्त की जाती है? ध्यान कौन कर सकता है ? किस ध्यान का क्या फल है ? इत्यादि। यहाँ पर इन प्रश्नों पर संक्षेप में विचार किया जायेगा।