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________________ 270 जैन धर्म: सार सन्देश में ध्यान का स्थान सबसे ऊँचा है। इसकी सर्वोच्चता और अनिवार्यता दिखलाते हुए ऋषिभासित में कहा गया है: सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साहु धम्मस्स, तहा झाणं विधीयते॥10 अर्थ-जैसे शरीर में सिर का और वृक्ष में मूल (जड़) का महत्त्व है वैसे ही साधु के समस्त धर्मों में ध्यान का महत्त्व है। क्योंकि ध्यान के बिना व्युत्सर्ग (शरीरादि में 'मैं-मेरा' के भाव का त्याग) नहीं होता और व्युत्सर्ग के बिना शरीर, संसार, कषाय और कर्म से मुक्ति नहीं होती है। कन्हैया लाल लोढ़ा ने भी ध्यान को सर्वोच्च और मुक्ति के लिए अनिवार्य साधन बताते हुए कहा है: जैन धर्म के साधना मार्ग में सर्वोच्च स्थान ध्यान का है। ...यह नियम है कि ध्यान के बिना वीतरागता व केवल ज्ञान नहीं होता है। केवल ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। अतः मुक्ति की अन्यतम साधना ध्यान ही है। ध्यान को 'मुक्ति का द्वार' बताते हुए वे फिर कहते हैं: अब तक जितने साधक मुक्त हुए हैं, उन सबने ध्यान-साधना अवश्य की है। ध्यान मुक्ति का द्वार है। ध्यान के बिना मुक्ति में प्रवेश कदापि सम्भव नहीं है। ध्यान को संसार-समुद्र से पार जाने का एकमात्र साधन बताते हुए शुभचन्द्राचार्य भी कहते हैं: हे आत्मन्! तू संसार के दुःखविनाशार्थ ज्ञानरूपी सुधारस (अमृतरस) को पी और संसाररूप समुद्र के पार होने के लिए ध्यानरूपी जहाज का अवलम्बन कर।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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