SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 269 अन्तर्मुखी साधना तो मन हवा के झोंकों से काँपते रहनेवाले पत्ते की तरह चंचल ही बना रहता है। हे स्वामी (गुरुदेव)! बिजली के समान चंचल इस मन को वश में करें। जिसप्रकार बाँध लगाये बिना जल स्थिर नहीं होता, उसी प्रकार मन को वश में किये बिना ध्यान भी स्थिर नहीं होता। गणेशप्रसाद वर्णी भी बड़े ही ज़ोरदार शब्दों में मन पर विजय प्राप्त करने के लिए चिताते हैं। वे कहते हैं: जो मनुष्य अपने मन पर विजयी नहीं संसार में उसकी अधोगति निश्चित है। जितने पाप संसार में हैं उन सबकी उत्पत्ति का मूल कारण मानसिक विकार है। जब तक वह शमन (शान्त) न होगा सुख का अंश भी न होगा। मन की शुद्धि बिना कायशुद्धि का कोई महत्त्व नहीं। आत्मा की विजय वही कर सकता है जो अपने मन को पर से (आत्मा से भिन्न विषयों से) रोक कर स्थिर करता है। विशुद्धता ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है। उसके बिना हमारा जीवन किसी काम का नहीं। जिन्होंने उसको त्यागा वे संसार से पार न हुए, उन्हें यहीं पर भ्रमण करने का अवसर मिलता रहेगा।' इसलिए मन को बाहरी विषयों से हटाकर इसे अपनी आत्मा में केन्द्रित करना आवश्यक है। मोक्ष की चाह रखनेवाले साधक को गुरु के उपदेशानुसार एकान्त अभ्यास द्वारा आत्मा से भिन्न विषयों से मन को हटाकर इसे आत्मलीन करने का प्रयत्न करना चाहिए। मन के शान्त होने पर ही ध्यान में एकाग्रता आती है और ध्यान के पूर्ण एकाग्र होने पर जीव परमात्मा का दर्शन प्राप्त करता है। इस प्रकार मन को वश में करनेवाला साधक मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। ध्यान की अनिवार्यता ध्यान की सिद्धि के लिए ही मन को बाहरी विषयों से हटाने और इसे वश में करने पर जोर दिया गया है। परमार्थ की प्राप्ति अन्तर्मुखी ज्ञान द्वारा होती है। यह ज्ञान ही अज्ञानजनित कर्मों का नाश कर मोक्ष की प्राप्ति कराता है। यह ज्ञान केवल ध्यान द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जैन धर्म की साधना
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy