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जैन धर्मः सार सन्देश मन को स्थिर किये बिना विषयों से अनासक्ति नहीं होती और विषयों के मोह में पड़कर मन भक्ति से दूर हो जाता है। मन को शान्त और एकाग्र करने के लिए एकान्त में अभ्यास करना आवश्यक है। इसे एक सुन्दर उपमा द्वारा समझाते हुए रत्नाकर शतक में कहा गया है:
जैसे डोरी के सहारे पतंग आकाश में चढ़ जाती है, इसी प्रकार विषयों के आधीन होकर मन भी स्वानुभूति से या सिद्ध-भगवान की भक्ति से दूर हट जाता है। वायु जिस प्रकार पतंग को आकाश में ऊँचा चढ़ा देती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म इस जीव को भक्ति से हटा देता है। मन के स्थिर हुए बिना विषयों से विरक्ति कभी नहीं हो सकती तथा विषयों में आसक्ति बनी ही रहती है, अत: मन को ध्यान के द्वारा एकाग्र करना चाहिये। मन को एकाग्र करने के लिए एकान्त में अभ्यास करना परम आवश्यक है तथा कभी भी मन को खाली नहीं रखना चाहिये।' ।
यह अभ्यास किसी सच्चे गुरु से उपदेश ग्रहण करने पर ही सफलतापूर्वक किया जा सकता है। गुरु की बतायी विधि से मन को स्थिर कर लेने पर ध्यान में स्थिरता आ जाती है। इसे स्पष्ट करते हुए णाणसार (ज्ञान-सार) में कहा गया है:
/ शुद्ध महाव्रत पाँचों धारै, क्रोध लोभ मद मोह निवारै। परिषह जीत भय स्मर (काम) खोई, ऐसे गुरु उपदेशक होई॥ सार देशना योगी पाके, निज आत्मा में निज मन लाके। नहिं रोकै तो मन चल होई, पवन वेगतें पत्ते ज्योंइ॥ मन चंचल चपला की नाई, ता मनको वश करहू सांई।
बाँधे विन जिम जल स्थिर नाही, मन वश विन ध्यान न हो स्थायी॥ अर्थात् जो अहिंसा, सत्य आदि पाँचों पवित्र महाव्रतों को धारण करनेवाले और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, भय और चिन्ता से दूर रहनेवाले हैं, वैसे ही गुरु सच्चे उपदेशक होते हैं। वैसे गुरु के सार उपदेश को ग्रहणकर अपने मन को आत्मा में लगाना चाहिए। यदि साधक अपने मन को इस प्रकार नहीं रोके