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अन्तर्मुखी साधना
जाता है, अर्थात् अपने आधीन (वश) किया हुआ मन भी रागादिक भावों से तत्काल कलंकित (मलिन) किया जाता है, इस कारण मुनिगणों या साधकों का यह कर्तव्य है कि इस विषय में वे प्रमादरहित (आलस्यरहित) हो सबसे पहिले इन रागादिक को दूर करने का यत्न करें। जो योगी मुनि या साधक इन्द्रियों के विषयों को दूर कर निज स्वरूप का अवलंबन करै तौ भी रागादिक भाव मन को बारंबार छलते हैं, अर्थात् विकार उत्पन्न करते हैं। ये रागादिक भाव मन को कभी तो मूढ़ करते हैं, कभी भ्रमरूप करते हैं, कभी भयभीत करते हैं, कभी रोगों से चलायमान करते हैं, कभी शंकित करते हैं, कभी क्लेशरूप करते हैं। इत्यादि प्रकार से स्थिरता से डिगा देते हैं।
मोहरूपी कर्दम (कीचड़) के क्षीण होनेपर तथा रागादिक परिणामों के प्रशान्त होनेपर योगीगण अपने में ही परमात्मा के स्वरूप का अवलोकन करते हैं वा अनुभव करते हैं। जब तक मन में रागद्वेष रहता है तब तक परमात्मा का स्वरूप नहीं भासता, रागद्वेषमोह के नष्ट होने पर ही शुभाशुभ कर्मों को नष्ट करनेवाले परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति होती है। रागद्वेषमोह रूपी कर्दम (कीचड़) के अभाव से प्रसन्नचित्तरूपी जल में मुनि को समस्त वस्तुओं के समूह स्पष्ट स्फुरायमान होते हैं अर्थात् प्रतिभासते हैं।
जिस प्रकार कटे हुए पाँखों का पक्षी उड़ने में असमर्थ होता है तैसे मनरूप पक्षी भी रागद्वेषरूप पाँखों के कट जाने से विकल्प रूप भ्रमण से रहित हो जाता है।
यह प्राणी मोह के वश से अन्य स्वरूप पदार्थों में क्रोध करता है, द्वेष करता है, तथा राग भी करता है। इस कारण मोह ही जगत् को जीतनेवाला है। इस रागद्वेषरूप विष के बन का बीज मोह ही है ऐसा भगवान् ने कहा है। इस कारण यह मोह ही समस्त दोषों की सेना का राजा है। जो मुनि मोहरूपी पटल (परदा) को दूर करता है वह मुनि शीघ्र ही समस्त लोक को ज्ञानरूपी नेत्रों से साक्षात् – प्रत्यक्ष (प्रकट) देखता है।'