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________________ 266 जैन धर्म : सार सन्देश जो पद निर्मत्सर (द्वेषरहित) तपोनिष्ठ मुनियों के द्वारा भी असाध्य है वह पद चित्त के प्रसार को रोकनेवाले धीर पुरुषों के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। भावार्थ- केवल बाह्य तप से उत्तम पद पाना असंभव है। जिस मुनि ने अपने चित्त को वश नहीं किया उसका तप, शास्त्राध्ययन, व्रत धारण, ज्ञान, कायक्लेश इत्यादि सब तुषखंडन (भूसी कूटने ) के समान नि:सार (व्यर्थ ) हैं, क्योंकि मन के वशीभूत हुए बिना ध्यान की सिद्धि नहीं होती । इसका रोकना अतिशय कठिन है। जो योगीश्वर इसे रोकते हैं वे धन्य हैं। इस जगत् में जो साधक चित्तरूपी दुर्निवार सर्प को जीतते हैं वे योगियों के समूह में वंदनीय हैं। 1. पवनवेगहूतैं प्रबल, मन भरमै सब ठौर । याको वश करि निज रमैं, ते मुनि सब शिरमौर | S मन अनेक जन्मों से राग, द्वेष और मोह के संस्कारों से जकड़ा हुआ है। ये संस्कार इतने प्रबल हैं कि तनिक भी असावधानी होने पर ये प्रयत्नशील साधकों के मन में भी विकार उत्पन्न कर देते हैं और उन्हें अपने मार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं। इसलिए साधक को सांसारिक विषयों के प्रलोभन से बचे रहने के लिए सदा पूरी तरह सावधान रहना आवश्यक है । रागादि भाव मन को अनेक प्रकार से अशान्त करते हैं। वे कभी भ्रम पैदा करते हैं, कभी डराते हैं, कभी रोग में फँसाते हैं, कभी सन्देह उत्पन्न करते हैं और कभी दुःख में उलझाकर साधक को अपनी साधना से विचलित कर देते हैं। राग, द्वेष और मोह के विकारों को अत्यन्त सावधानीपूर्वक मन से निकालने पर ही साधक अपने ध्यान को एकाग्र कर सकता है और तभी वह परमात्मा का दर्शन प्राप्त करने में सफल हो सकता है। इसलिए रागादि विकारों को दृढ़तापूर्वक दूर कर मन को जीतने और अपने अन्दर परमात्मस्वरूप का दर्शन करने का उपदेश देते हुए ज्ञानार्णव में फिर कहा गया है: आत्मस्वरूप के सन्मुख स्वस्थ (शान्त) किया हुआ मन भी अनादिकाल से उत्पन्न हुए व बँधे हुए रागादि शत्रुओं से जबरदस्ती पीड़ित किया
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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