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________________ 265 अन्तर्मुखी साधना व्रत नियम तप व शास्त्रादिक में क्लेश करना (धर्मग्रन्थों को पढ़ने और उनके पाठ करने का कष्ट करना) व्यर्थ ही है। निःसंदेह मन की शुद्धि से ही जीवों की शुद्धता होती है, मन की शुद्धि के बिना केवल काय को क्षीण करना वृथा है। ___ मन की शुद्धता से उत्तरोत्तर विवेक बढ़ता है। जो पुरुष चित्त की शुद्धता को न पाकर भले प्रकार मुक्त होना चाहता है वह केवल मृगतृष्णा की नदी में जल पीता है। भावार्थ-मृगतृष्णा में जल कहाँ से आया? उसी प्रकार चित्त की शुद्धता के बिना मुक्ति कहाँ से हो? मन को वश में करना जितना आवश्यक है, उतना ही कठिन भी है। मन अनेक रूप धारण करता है। कभी दैत्य या राक्षस के समान विकराल बनकर जीवों को कष्ट पहुँचाता है और कभी हाथी, बन्दर और सर्प के समान अपने अत्यन्त प्रबल, चंचल और जहरीले स्वभाव को प्रकट करता है। इसलिए इसे जीतना अत्यन्त कठिन है। दृढ़ संकल्प के साथ अडिग रूप से अपनी साधना में लगे रहनेवाले साधक ही मन को जीतने में सफल होते हैं। मन के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए तथा इसे पूरी सावधानी और साहस के साथ वश में लाने की प्रेरणा देते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: विषय ग्रहण करने में लुब्ध (लोभी) ऐसे इस चित्तरूपी दैत्य ने (राक्षस ने) सर्व प्रकार विक्रिया (बुरा कर्म) करके विकाररूप हो अपनी इच्छानुसार इस जगत को पीड़ित किया है। ___ हे मुने! यह चित्तरूपी हस्ती (हाथी) ऐसा प्रबल है कि इसका पराक्रम अनिवार्य है, अर्थात् इसकी शक्ति को रोक पाना कठिन है। इसलिए जब तक यह समीचीन संयमरूपी घर को नष्ट नहीं करता, उससे पहिले-पहिले तू इसका निवारण करे। यह चित्त निरर्गल (स्वच्छन्द) रहेगा तो संयम को विगाड़ेगा। यह चंचलचित्तरूपी बंदर विषयरूपी बन में भ्रमता रहता है। सो जिस पुरुष ने इसको रोका, वश किया, उसी के बांछित फल की सिद्धि है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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