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________________ जैन धर्म: सार सन्देश 264 की ज़रूरत होती है। अन्तर्मुखी साधना में सबसे पहले सदा बाहर भटकते रहनेवाले मन पर नियन्त्रण करना आवश्यक है। मन पर नियन्त्रण किये बिना अन्तर्मुखी ध्यान का अभ्यास करना सम्भव नहीं है और ध्यान के बिना मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: जब तक प्रमाद (लापरवाही) और इन्द्रियों के विषयों में चित्त की प्रवृत्ति रहती है, तब तक कोई ध्यान में नहीं लग सकता। यदि तु ध्यान करना चाहता है तो प्रथम ही अपने मन को वश में कर और शान्तभाव धारण कर।' मन का नियन्त्रण मन को अपने नियन्त्रण में लाना या इसे वश में करना ही अन्तर्मुखी साधना का मूल है। जो साधक विषयों की ओर दौड़नेवाले मन को वश में कर लेता है, वह सबको अपने वश में कर लेता है। मन को वश में करने पर ही कर्मों की मैल उतरती है और चित्त में शुद्धता आती है। इसके फलस्वरूप ध्यान में निर्मलता आती है, विवेक में वृद्धि होती है और अन्त में साधक आत्मलीन हो मुक्ति की प्राप्ति कर लेता है। ज्ञानार्णव में इन बातों को विस्तार के साथसमझाते हुए कहा गया है: जिसने मन का रोध किया उसने सब ही रोका, अर्थात् जिसने अपने मन को वश किया उसने सबको वश किया और जिसने अपने मन को वशीभूत नहीं किया उसका अन्य इन्द्रियादिक का रोकना भी व्यर्थ ही है। ___मन की शुद्धता से ही साक्षात् कलंक का विलय (नाश) होता है और जीवों को उनका समभाव स्वरूप होने पर स्वार्थ की (आत्मस्वरूप की) सिद्धि होती है, क्योंकि जब मन रागद्वेषरूप नहीं प्रवर्तता है तब ही अपने स्वरूप में लीन होता है, यही स्वार्थ की सिद्धि है। संयमी मुनियों को एक मात्र मनरूपी दैत्य का जीतना ही समस्त अर्थों की सिद्धि को देनेवाला है, क्योंकि इस मन को जीते बिना अन्य
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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