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________________ जैन धर्म: सार सन्देश 262 / सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ-भावं विपरीत-वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव! / अर्थात् मनुष्य सोचे कि-भगवन् ! संसार के सम्पूर्ण प्राणियों से मित्रता, गुणी पुरुषों को देखकर प्रसन्नता, दुःखी जीवों पर दयार्द्रता और अकारण द्वेष करनेवालों या दुष्ट जीवों पर माध्यस्थता अर्थात् न राग, न द्वेष, मेरी आत्मा निरन्तर धारण करे। प्रत्येक व्यक्ति का मनुष्यता के नाते यह परम कर्तव्य होना चाहिए कि वह जीवन की उपर्युक्त चर्या और भावनाओं को अपने जीवन में अवश्य उतारे।48 इन चारों भावनाओं को प्राचीन भारतीय परम्परा में प्रायः सर्वसम्मति से धार्मिक आचार-विचार का आवश्यक अंग, मार्गदर्शक और धर्म ध्यान की आधारशिला माना गया है। जैन धर्म के ही समान बौद्ध धर्म और पातञ्जल योग में भी इन चारों भावनाओं की शिक्षा दी गयी है। पतञ्जलि के योगसूत्र में इन्हीं भावनाओं का उल्लेख मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा के नाम से किया गया है: मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। अर्थात् सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापी जीवों के प्रति क्रमश: मित्रता, करुणा (दया), प्रसन्नता और उपेक्षा की भावना करने से चित्त में निर्मलता आती है। निश्चय ही ये भावनाएँ साधक के लिए बहुत उपयोगी हैं। क्रोध, मान, माया आदि चित्त के विकारों को हटाकर ये आत्मा को निर्मल बनाती, अन्तर में प्रकाश उत्पन्न करती, संसार के प्रति मोह को दूर करतीं और ध्यान को स्थिर बनाती हैं। ध्यान या समाधि द्वारा ही तो अन्त में जीव मोक्ष को प्राप्त करता है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस अध्याय में वर्णित भावनाओं का समुचित अभ्यास, अभ्यासी के वैराग्य-भाव को बढ़ाने और ध्यान को स्थिर करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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