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________________ अनुप्रेक्षा ( भावना) जो जीव दीनता से तथा शोक भय रोगादिक की पीड़ा से दुःखित हों, पीड़ित हों तथा वध (घात) बंधन सहित रोके हुए हों, अथवा अपने जीवन की बांछा (इच्छा) करते हुए कि कोई हमको बचाओ ऐसे दीन प्रार्थना करनेवाले हों, तथा क्षुधा तृषा खेद (भूख, प्यास, दुःख) आदिक से पीड़ित हों, तथा शीत उष्णतादिक से पीड़ित हों तथा निर्दय पुरुषों की निर्दयता से रोके हुए (पीड़ित किये हुए) मरण के दुःख को प्राप्त हों, इस प्रकार दुःखी जीवों को देखने-सुनने से उनके दुःख दूर करने के उपाय करने की बुद्धि हो उसे करुणा नाम की भावना कहते हैं । “ 261 चौथी भावना को माध्यस्थ्य भावना कहते हैं । जो लोग अनेक प्रकार की विषय-वासनाओं में बुरी तरह लिप्त हैं, सबके साथ सदा दुष्टता का व्यवहार करते हैं, सबको सताना या कष्ट देना ही जिनका स्वभाव है, जो अपने कल्याण की बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं और अकारण परमात्मास्वरूप जिनेन्द्र देव, सद्गुरु और सद्ग्रन्थों की निन्दा करते हैं, उन्हें समझाने-बुझाने की चेष्टा करना पत्थर पर तीर मारने के समान ही निष्फल है । वैसी स्थिति में उन्हें समझाना या किसी प्रकार छेड़ना अपने-आपको व्यर्थ ही संकट में डालना है। उनके प्रति व्यर्थ चिन्ता करने या परेशान होने से कोई लाभ नहीं। इसलिए परमार्थ के साधक को उनके प्रति राग-द्वेष न कर तटस्थता या उदासीनता का भाव अपनाना ही उचित है । इस उदासीनता की भावना को ही माध्यस्थ्य भावना कहते हैं। ज्ञानार्णव में इस भावना को इस प्रकार व्यक्त किया गया है: जो प्राणी क्रोधी हों, निर्दय व क्रूरकर्मी हों, मांस मद्य और पर - स्त्री में लुब्ध (लम्पट) तथा आसक्त व्यसनी हों, और अत्यन्त पापी हों तथा देव- शास्त्र गुरुओं के समूह की निंदा करनेवाले और अपनी प्रशंसा करनेवाले हों तथा नास्तिक हों, ऐसे जीवों में रागद्वेषरहित मध्यस्थभाव होना सो उपेक्षा कहा है । उपेक्षा नाम उदासीनता ( वीतरागता ) का है, सो यही मध्यस्थभावना है। 47 इन चारों भावनाओं को नाथूराम डोंगरीय जैन ने बड़े ही संक्षिप्त रूप में सरल और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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