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जैन धर्म : सार सन्देश
सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ॥
मा कार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखितः ।
मुच्यतां जगदप्येषा मतिर्मैत्री निगद्यते ॥
संसार के सभी प्राणी सुखी हों, सभी प्राणी रोगरहित हों, सभी जीव आनन्द से रहें और नित्य नये कल्याणों को देखें । कोई भी जीव दुःख को प्राप्त न हो, कोई भी प्राणी पापों को न करे और यह सारा संसार दुःखों से छूटे। इस प्रकार से विचार करने को मैत्रीभावना कहते हैं। 44
दूसरी भावना को प्रमोद ( मुदिता) कहा गया है। संसार में जो मनुष्य सदाचार, पारमार्थिक साधना या अन्य किसी भी गुण में अपने से बढ़कर हौं उनके प्रति कभी भी ईर्ष्या और द्वेष की भावना न रखकर सदा उनके प्रति भक्ति और अनुराग का भाव रखकर अपने अन्तर में प्रसन्नता का अनुभव करना ही प्रमोद की भावना है।
इस भावना को ज्ञानार्णव में इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है:
जो पुरुष तप, शास्त्राध्ययन और यम नियमादिक में उद्यमयुक्त चित्तवाले हैं, तथा ज्ञान ही जिनके नेत्र हैं, इन्द्रिय, मन और कषायों को जीतनेवाले हैं, तथा स्वतत्त्वाभ्यास करने में चतुर हैं, जगत को चमत्कृत करनेवाले चारित्र से जिनकी आत्मा अधिष्ठित (प्रतिष्ठित ) है, ऐसे पुरुषों के गुणों में प्रमोद का (हर्ष का) होना सो मुदिता या प्रमोद भावना है। 45
तीसरी भावना को कारुण्य (करुणा - भावना) कहते हैं । परमार्थ के साधक को कोमलचित्त होना अत्यन्त आवश्यक है । तभी वह संसार के दुःखों की तीव्रता को भली-भाँति समझ सकता है और उनसे छुटकारा पाने के उपाय में दृढ़ता से लग सकता है। ऐसे व्यक्ति को अपने समान ही दूसरों के दुःखों के प्रति भी गहरी सहानुभूति होती है और वह उन पर दया कर उनका उद्धार करना चाहता है। उसके चित्त में जीवों के प्रति करुणा का भाव और उनके उद्धार की भावना का होना ही करुणा - भावना कहलाती है । ज्ञानार्णव में इसे इस प्रकार समझाया गया है: