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अनुप्रेक्षा (भावना)
259 आवश्यक शान्ति, समता और मृदुता को वह कैसे प्राप्त कर सकता है? इन समस्याओं का समाधान क्या है ? अर्थात् शान्त चित्त होकर ध्यान को कैसे स्थिर रखा जा सकता है ? जैन धर्म में इसके लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य नामक चार भावनाओं का निरन्तर अभ्यास करने का उपदेश दिया गया है।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में इन भावनाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है: मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥५॥
अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्री, अपने से अधिक गुणवालों में प्रमोद, क्लिश्यमान् (दुःखित या पीड़ित जीवों) में करुणा-भाव और अविनेय (धर्म में रुचि न रखनेवाले दुष्ट या उजड्ड जीवों) में माध्यस्थ्य (उदासीन) भावना करनी चाहिए।
ज्ञानार्णव में भी इन भावनाओं के चिन्तन करने का उपदेश इन शब्दों में दिया गया है:
मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ-इन चार भावनाओं को पुराणपुरुषों ने (तीर्थंकरादिकों ने) आश्रित किया है (अर्थात् इनका सहारा लिया है), इस कारण धन्य हैं, (प्रशंसनीय हैं); सो धर्मध्यान की सिद्धि के लिए इन चारों भावनाओं को चित्त में ध्यावना चाहिए।42
पहली भावना-मैत्री का अर्थ है समस्त प्राणीमात्र को अपने समान समझते हुए अपने चित्त में सदा यह चाह बनाये रखना कि सभी प्राणी दुःख से बचे रहें और सुख को प्राप्त करें।
ज्ञानार्णव में मैत्री भावना को इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
इस मैत्रीभावना में ऐसी भावना रहे कि ये सब जीव कष्ट आपदाओं से वर्जित हो जीओ, तथा वैर पाप अपमान को छोड़कर सुख को प्राप्त होओ। इस प्रकार की भावना को मैत्रीभावना कहते हैं।43 :. इसी भाव को व्यक्त करते हुए जैनधर्मामृत में मैत्री भावना को इस प्रकार समझाया गया है: