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अनुप्रेक्षा (भावना)
मेघ, पवन, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, समुद्र और इन्द्र ये सम्पूर्ण पदार्थ जगत के उपकाररूप प्रवर्त्तते (संचालित होते) हैं और वे सब ही धर्मद्वारा रक्षा किये हुए प्रवर्तते हैं। धर्म के बिना ये कोई भी उपकारी नहीं होते हैं।
धर्म, परलोक में प्राणी के साथ जाता है, उसकी रक्षा करता है, नियम से उसका हित करता है तथा संसाररूपी कर्दम (कीचड़) से उसे निकालकर निर्मल मोक्षमार्ग में स्थापन करता है।
इस जगत् में धर्म के समान अन्य कोई समस्त प्रकार के अभ्युदय का साधक नहीं है। यह मनोवांछित सम्पदा का देनेवाला है। आनंदरूपी वृक्ष का कन्द (मूल) है, अर्थात् आनंद के अंकूर इससे ही उत्पन्न होते हैं तथा हितरूप पूजनीय और मोक्ष का देनेवाला भी यही है।36
धर्म को दश अंगोंवाला कहा जाता है। इन दश अंगों का उल्लेख ज्ञानार्णव में इस प्रकार किया गया है:
1. क्षमा 2. मार्दव 3. शौच 4. आर्जव 5. सत्य 6. संयम 7. ब्रह्मचर्य 8. तप 9. त्याग और 10. आकिञ्चन्य-ये दश प्रकार के धर्म हैं।
इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में धर्म के स्वरूप को विस्तारपूर्वक बतलाया गया है। धर्म की भावना सदा चित्त में बनी रहनी चाहिए। तभी साधक अधर्म से बचकर दृढ़ता से धर्म के नियमों का पालन करते हुए मोक्ष-मार्ग में आगे बढ़ सकता है। ___ इन बारह भावनाओं के निरन्तर चिन्तन से संसार, शरीर और इन्द्रियों के भोगों से चित्त उदासीन होता है, आत्म-निर्मलता प्रकट होती है और वैराग्य-भाव की वृद्धि होती है।
ज्ञानार्णव में इन भावनाओं के अभ्यास का फल बताते हुए कहा गया है:
इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में (क्रोध, मान, माया आदि) कषायरूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूप अंधकार का विलय (नाश) होकर ज्ञानरूप दीपक का प्रकाश होता है।38