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________________ 256 जैन धर्म: सार सन्देश __जिन-वाणी में भी इस दुर्लभ मनुष्य-जीवन में अत्यन्त दुर्लभ बोधि, अर्थात् सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अपनाने पर बल देते हुए कहा गया है: इस प्रकार इस मनुष्यगति को दुर्लभ से भी अतिदुर्लभ जानकर और उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को भी दुर्लभ से दुर्लभ समझकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों का बड़ा आदर कीजिए।34 इस परम दुर्लभ बोधि या सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग कहा गया है जो मानव-जीवन का लक्ष्य है। 12. धर्म भावना सर्वज्ञ देव ने जीवों के उद्धार के लिए उन्हें धर्म का उपदेश दिया है। धर्म के संरक्षण में ही जीवों के उपकार के लिए सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि नियमित रूप से अपना-अपना कार्य करते हैं। धर्म इस लोक में जीव की रक्षा करता है और परलोक में मोक्षरूपी अमृत प्रदान करता है। इसलिए अपना कल्याण चाहनेवालों को दृढ़ता से अहिंसा, सत्य आदि धर्म के सभी नियमों का पालन करना चाहिए। धर्म के स्वरूप, महिमा और फल को यथार्थ रूप से समझते हुए इसका बार-बार चिन्तन करना ही धर्म भावना है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में इसे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार समझाया गया है: यह सर्वज्ञप्रणीत (सर्वज्ञ द्वारा रचित) जैन धर्म अहिंसालक्षणयुक्त है। सत्य, शौच, ब्रह्मचर्यादि इसके अंग हैं। इनकी अप्राप्ति से जीव अनादि संसार में परिभ्रमण करता है, पाप के विपाक से दु:खी होता है, परन्तु इसकी प्राप्ति से अनेक सांसारिक सम्पदाओं का भोग करके मुक्ति-प्राप्ति से सुखी होता है। इस प्रकार चिंतवन करने को धर्मानुप्रेक्षा (धर्म भावना) कहते हैं। धर्मभावना के विषय में कुछ अधिक विस्तार के साथ बतलाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: . धर्म, कष्ट के आने पर समस्त जगत के त्रस-स्थावर (चलने और न चलनेवाले) जीवों की रक्षा करता है और सुखरूपी अमृत के प्रवाह से समस्त जगत् को तृप्त करता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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