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________________ अनुप्रेक्षा (भावना) को लिए हुए भिन्न-भिन्न तिष्ठते ( विराजमान) हैं उनमें आप एक आत्मद्रव्य है। उसका स्वरूप यथार्थ जानकर, अन्य पदार्थों से ममता छोड़के, आत्मभावन (आत्मचिन्तन) करना ही परमार्थ है । व्यवहार से समस्तद्रव्यों का यथार्थस्वरूप जानना चाहिए, जिससे मिथ्या - श्रद्धान दूर हो जाता है, इस प्रकार लोकभावना का चिंतवन करना चाहिए | 32 255 इन कथनों से स्पष्ट है कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली सांसारिक वस्तुओं को आत्मा से भिन्न समझते हुए उनके प्रति मोह और ममता का त्यागकर समभाव से आन्तरिक ध्यान कर आत्मस्वरूप का अनुभव प्राप्त करना चाहिए । यही लोक भावना का उद्देश्य है । 11. बोधिदुर्लभ भावना संसार के असंख्य जीवों में मनुष्य को सबसे श्रेष्ठ माना गया है । अनेक योनियों में भटकने के बाद अत्यन्त कठिनाई से मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। इस जन्म में भी पाँचों इन्द्रियों और सुन्दर बुद्धि से युक्त होना और फिर सुसंगति और सुअवसर प्राप्त करना दुर्लभ है। ऐसे मनुष्यों में भी वे साधक अत्यन्त दुर्लभ हैं जो आलस और सुस्ती को छोड़ पूर्ण तत्परता के साथ बोधि (परम ज्ञान) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। यह बोधि ही मोक्ष का साधन या मार्ग है। इस तथ्य का बार-बार चिन्तन करना कि बोधि ही दुर्लभ से दुर्लभ पदार्थ है और एकमात्र मनुष्य - जीवन में ही इसकी प्राप्ति हो सकती है, बोधिदुर्लभ भावना कही जाती है। यह भावना आलस और असावधानी को त्यागने और पूर्ण तत्परता के साथ बोधि-प्राप्ति के प्रयत्न में लगे रहने की प्रेरणा देती है । शुभचन्द्राचार्य ने बोधिदुर्लभ भावना को इस प्रकार समझाया है: यह जो बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - स्वरूप रत्नत्रय है, संसार रूपी समुद्र में प्राप्त होना सुगम नहीं है, किन्तु अत्यन्तदुर्लभ्य है । इसको पाकर भी जो खो बैठते हैं, उनको हाथ में रक्खे हुए रत्न को बड़े समुद्र में डाल देने पर जैसे फिर मिलना कठिन है, उसी प्रकार सम्यग्रत्नत्रय का पांना दुर्लभ है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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