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जैन धर्म : सार सन्देश स्थिरभाव से अपने अन्तर में आत्मस्वरूप का ध्यान करने से ही उत्तम निर्जरा होती है। जिन-वाणी में स्पष्ट कहा गया है:
जो मुनि समताभावरूप सुख में लीन होकर आत्मा का स्मरण करता है तथा इन्द्रियों और कषायों को जीत लेता है उसके उत्कृष्ट (उत्तम) • निर्जरा होती है।
इस प्रकार संवर द्वारा नये कर्मों का प्रवाह रुक जाने और निर्जरा द्वारा सभी संचित कर्मों के नष्ट हो जाने से जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
10. लोक भावना जहाँ जीव और अजीव (अचेतन) पदार्थों का निवास है उसे लोक कहते हैं। इस लोक में आत्मा को छोड़ अन्य सभी पदार्थ परिवर्तनशील हैं। वे सभी समय की सीमा में हैं और किसी विशेष समय पर उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं। एकमात्र आत्मा ही नित्य पदार्थ है जो सभी सांसारिक पदार्थों से बिल्कुल भिन्न है। इसे भली-भाँति समझते हुए साधक को सभी सांसारिक पदार्थों के प्रति ममता या अपनेपन का त्याग कर देना चाहिए।
इस प्रकार लोक के यथार्थ स्वरूप का बार-बार स्मरण और चिन्तन करना ही लोकभावना है। यह भावना आत्मस्वरूप का ध्यान करने में बहुत ही सहायक होती है।
ज्ञानार्णव में लोकभावना को इस प्रकार समझाया गया है: जितने आकाश में जीवादिक चेतन अचेतन पदार्थ ज्ञानीपुरुषों ने देखे हैं, सो तो लोक है। उसके बाह्य जो केवल मात्र आकाश है, उसे अलोक व अलोकाकाश कहते हैं। ___ इस लोक में ये सब प्राणी नाना गतियों में संस्थित (रहते हुए) अपने अपने कर्मरूपी फाँसी के वशीभूत होकर मरते तथा उपजते रहते हैं।
इस भावना का संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि यह लोक जीवादिकद्रव्यों की रचना है। जो (समस्तद्रव्य) अपने अपने स्वभाव