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अनुप्रेक्षा (भावना) और निर्जरा द्वारा सभी कर्मों से छुटकारा पाकर आत्मा सदा के लिए मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेती है।
निर्जरा के दो भेद बताये गये हैं: (1) सविपाक निर्जरा अर्थात आत्मा में संचित कर्मों का अपना फल देकर स्वयं जल जाना या झड़ जाना, और (2) अविपाक निर्जरा अर्थात् संचित कर्मों को पारमार्थिक साधना द्वारा जलाकर नष्ट कर देना।
इन दोनों भेदों को स्पष्ट करते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है: यह (निर्जरा) दो प्रकार की होती है; एक सविपाक निर्जरा, दूसरी अविपाक निर्जरा। पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति पूर्ण होकर उनके रस (फल) देकर स्वयं झड़ जाने को सविपाक निर्जरा कहते हैं,
और तपश्चर्या परीषहविजयादि (भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि को स्थिरभाव से सहन करने में सफलता) के द्वारा कर्मों की स्थिति पूरी किये बिना ही झड़ जाने को अविपाक निर्जरा कहते हैं। आम्रफल का वृक्ष में लगे हुए काल पाकर स्वयं पक जाना सविपाक निर्जरा का और पदार्थ विशेष में दबाकर गर्मी के द्वारा पकाया जाना अविपाक निर्जरा का उदाहरण है। सविपाक निर्जरा सम्पूर्ण संसारी जीवों के होती है, परन्तु अविपाक निर्जरा सम्यग्दृष्टी सत्पुरुषों तथा व्रतधारियों के ही होती है। निर्जरा स्वरूप का इस प्रकार चिंतवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।"
ज्ञानार्णव में निर्जरा भावना के इन दोनों भेदों को इन शब्दों में समझाया गया है:
यह निर्जरा जीवों को सकाम और अकाम दो प्रकार की होती है। इनमें से पहिली सकाम निर्जरा (अविपाक निर्जरा) तो मुनियों को होती है और अकामनिर्जरा (सविपाक निर्जरा) समस्त जीवों को होती है।
यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं, तथापि वे ध्यानरूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं। उनके क्षय होने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी कर्मनष्ट होकर शुद्ध (मुक्त) हो जाता है।