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जैन धर्मः सार सन्देश
का परिग्रह त्यागभाव; इस प्रकार अनुक्रम से (क्रमानुसार) शत्रु जानने चाहिए। ___ जो योगी ध्यानी मुनि हैं, वे निरन्तर समभावों से अथवा निर्ममत्व से रागद्वेष का निराकरण (परास्त) करते रहते हैं, तथा सम्यग्दर्शन के योग से मिथ्यात्वरूप भावों को नष्ट कर देते हैं। __संवर करने में तत्पर संयमी और नि:शंक मुनि असंयमरूपी विष के (जहर के) उद्गार (उफान) को संयमरूपी अमृतमयी जलों से दूर कर देते हैं। ___जैसे चतुर द्वारपाल मैले तथा असभ्यजनों को घर में प्रवेश नहीं करने देता है उसी प्रकार समीचीन (शुद्ध) बुद्धि पापबुद्धि को हृदय में फटकने नहीं देती। ___ इसका संक्षिप्त आशय यह है कि आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूप को भूल रही है, इस कारण आस्रवरूप भावों से कर्मों को बाँधती है और जब यह अपने स्वरूप को जानकर उसमें लीन होती है, तब यह संवररूप होकर आगामी (आनेवाले) कर्मबन्ध को रोकती है।”
इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग न रखने या उनसे अनासक्त रहने से आत्मा में किसी भी नये कर्म का प्रवेश नहीं होता। संवर का यही वास्तविक अर्थ है। नये कर्मों से आत्मा को बचाने या ढके रखने के लिए संवर मानो एक कवच है। इसी भाव को जिन-वाणी में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
जो मुनि इन्द्रियों के विषय से विरक्त होकर मनोहर इन्द्रिय विषयों से आत्मा को सदैव संवृत (ढका हुआ अर्थात् सुरक्षित) रखते हैं उसके स्पष्ट संवर भावना है। 28
9. निर्जरा भावना निर्जरा का अर्थ है कर्मों का जल जाना या झड़ जाना। कर्म ही संसार के बीज हैं। जैसा कि हमने अभी देखा है, संवर द्वारा नये कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर पाते। निर्जरा द्वारा आत्मा के समस्त संचित कर्म जल जाते हैं। इस प्रकार संवर