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अनुप्रेक्षा (भावना)
249 जिन-वाणी में शरीर को 'मल-मूत्र का घर' कहते हुए इसकी अपवित्रता इन शब्दों में बतायी गयी है:
हे भव्य, तू इस देह को अपवित्र जान । यह देह समस्त कुत्सित वस्तुओं का पिण्ड है, कमि-समूहों से भरा हुआ है, अपूर्व दुर्गन्धमय है तथा मल-मूत्र का घर है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है: शरीर इतना निंद्य पदार्थ है कि यदि इसके ऊपर त्वचाजाल नहीं होता, तो इसकी ओर देखना भी कठिन हो जाता।2
ज्ञानार्णव में भी शरीर को अत्यन्त अपवित्र और दुःख का घर बतलाकर इससे छुटकारा पाने का उपदेश दिया गया है। मनुष्य-शरीर प्राप्त करने का सुन्दर फल उसी को मिलता है जो शरीर से अनासक्त हो कल्याण मार्ग पर चलते हुए शरीर से छुटकारा पा लेता है। इसे समझाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है:
यह मनुष्य का शरीर नव द्वारों से निरन्तर दुर्गन्धरूप पदार्थों से झरता रहता है, तथा क्षणध्वंशी पराधीन है और नित्य अन्नपानी की सहायता चाहता है।
इस शरीर में जो जो पदार्थ हैं, सुबुद्धि से विचार करने पर वे सब घणा के स्थान तथा दुर्गन्धमय विष्टा के घर ही प्रतीत होते हैं। इस शरीर में कोई भी पदार्थ पवित्र नहीं है। __ यदि यह शरीर बाहर के चमड़े से ढका हुआ नहीं होता, तो मक्खी, कृमि तथा कौओं से इसकी रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं होता।
इस शरीर के प्राप्त होने का फल उन्हींने लिया, जिन्होंने संसारसे विरक्त (उदासीन या अनासक्त) होकर इसे अपने कल्याणमार्ग में पुण्यकर्मों से क्षीण किया।
इस जगत में संसार से (जन्ममरण से) उत्पन्न जो जो दुःख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त (मुक्त) होने पर फिर कोई भी दुःख नहीं है।