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जैन धर्म : सार सन्देश जो कोई देह को जीवन के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्म-स्वरूप का ही सेवन करता है उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी (कारगर) है।
ज्ञानार्णव में भी आत्मा को शरीर और बाहरी पदार्थों से भिन्न बतलाते हुए आत्मभाव में लीन होने का उपदेश इन शब्दों में दिया गया है:
मूर्त चेतनारहित नाना प्रकार के स्वतन्त्र परमाणुओं से जो शरीर रचा गया है उससे और आत्मा से क्या सम्बन्ध है ? विचारो! इसका विचार करने से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा प्रतिभास होगा।
जब उपर्युक्त प्रकार से देह से ही प्राणी की अत्यन्त भिन्नता है, तब बहिरंग जो कुटुंबादिक हैं उनसे एकता कैसे हो सकती है ? क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष में भिन्न दीख पड़ते हैं। ___ यह आत्मा अनादिकाल से पर पदार्थों को अपना मानकर उनमें रमती है इसी कारण से संसार में भ्रमण किया करती है। आचार्य महाराज ने ऐसे ही जीव को उपदेश किया है कि, तू पर भावों से भिन्न अपने चैतन्यभाव में लीन होकर मुक्ति को प्राप्त हो। इस प्रकार यह अन्यत्वभावना का उपदेश है।20
इस प्रकार आत्मा को शरीर और सांसारिक वस्तुओं से बिल्कुल भिन्न समझते हुए आत्मलीनता की प्राप्ति के प्रयत्न में लगना चाहिए। 6. अशुचि भावना आत्मा अपने-आप में निर्मल और पवित्र है। पर कर्मों के कारण मिले अपवित्र शरीर में राग करने और उसमें ममत्व का भाव रखने से जीव में विकार उत्पन्न हो जाते हैं और उसे संसार के बन्धन में पड़कर दु:ख उठाना पड़ता है। ऐसा अपवित्र शरीर प्रीति करने के योग्य नहीं है। इसकी अपवित्रता का बार-बार चिन्तन करना ही अशुचि भावना है। जीव को अपने और पराये-सभी शरीर - के प्रति अशुचि या अपवित्रता की भावना रखकर अपने को अपनी आत्मा में, जो परम पवित्र है, लीन कर देना चाहिए। इस प्रकार जीव को सदा के लिए शरीर से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।