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________________ अनुप्रेक्षा ( भावना) यह आत्मा सदा अकेला ही महापाप उत्पन्न करता है और समय पाकर अकेला ही उन कर्मों के उदय से उत्पन्न होनेवाले महान् दुःखों को भोगता है। इसी प्रकार अकेला ही मोक्ष जाता है और अकेला ही अनन्तकाल तक सिद्ध अवस्था में विराजमान रहता है। हे आत्मन् ! जब तक तेरी आत्मा इस प्रकार मोक्ष में पहुँचकर अपने आत्मा में लीन न हो जाये तब तक तू इस सुख देनेवाली आत्मा की एकत्वभावना का ही चितवन करता रह । 7 17 5. अन्यत्व भावना जड़ और मूर्तिमान् शरीर तथा सांसारिक पदार्थों से चेतन और अमूर्त आत्मा सर्वथा भिन्न है । इस भिन्नता का बार-बार चिन्तन करते रहने को ही अन्यत्व भावना कहते हैं। इस प्रकार का चिन्तन न करने के कारण जीव शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपने से भिन्न रूप में देखते और समझते हुए भी इनके प्रति राग करता है और इनके मोह में पड़ा रहता है । इसीलिए जैन ग्रन्थों में अन्यत्व भावना को साधक के लिए आवश्यक माना गया है । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आत्मा को शरीर और सांसारिक पदार्थों से बिल्कुल भिन्न बताते हुए स्पष्ट कहा गया है: यद्यपि इस शरीर से मेरा अनादि काल से सम्बन्ध है, परन्तु यह अन्य है और मैं अन्य ही हूँ। यह इन्द्रियमय है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। यह जड़ है, मैं चैतन्य हूँ। यह अनित्य है, मैं नित्य हूँ। यह आदि अन्त संयुक्त है, मैं अनादि अनन्त हूँ। सारांश—शरीर और मैं सर्वथा भिन्न हूँ । इसलिए जब अत्यन्त समीपस्थ शरीर भी अपना नहीं है, तो फिर स्त्री कुटुम्बादिक अपने किस प्रकार हो सकते हैं? ये तो प्रत्यक्ष ही दूसरे हैं। 18 247 जिन - वाणी के अनुसार शरीर और बाह्य वस्तुओं को अपने से भिन्न जानते भी उनमें राग करना कोरी मूर्खता है: यह जीव सब बाह्य वस्तुओं को आत्मा से भिन्न जानता है और जानता हुआ भी उन परद्रव्यों में ही राग करता है । यह इसकी मूर्खता है ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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