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________________ 246 जैन धर्म : सार सन्देश हे भव्य, तुम सब प्रकार से प्रयत्न करके जीव को शरीर से भिन्न और अकेला जान लो। जीव को इस प्रकार अकेला जान लेने पर समस्त परद्रव्य (आत्मा से भिन्न पदार्थ) क्षणमात्र में हेय (त्याज्य) हो जाते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, जीव इस संसार के वस्तुओं और व्यक्तियों के मोह में पड़कर उनके लिए जो भी भला-बुरा कर्म करता है, उसका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है। यदि जीव एकत्व भावना का चिन्तन कर इन विषयों के प्रति अपने मोह या आसक्ति का त्याग कर दे तो वह सहज ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसे समझाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: यह जीव पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक के निमित्त जो कुछ बुरे-भले कार्य करता है उनका फल भी नरकादिक गतियों में स्वयम् अकेला ही भोगता है। वहाँ भी कोई पुत्र-मित्रादि कर्मफल भोगने को साथी नहीं होते। ___ यह प्राणी बुरे-भले कार्य करके जो धनोपार्जन करता है, उस धन के भोगने को तो पुत्रमित्रादि अनेक साथी हो जाते हैं, परन्तु अपने कर्मों से उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दुःखों के समूह को सहने के अर्थ (लिए) कोई भी साथी नहीं होता है। यह जीव अकेला ही सब दुःखों को भोगता है। _ जिस समय यह जीव भ्रमरहित हो ऐसा चिंतवन करे कि, मैं एकता को प्राप्त हो गया हूँ, उसी समय इस जीव का संसार का सम्बन्ध स्वयं ही नष्ट हो जाता है; क्योंकि संसार का सम्बन्ध तो मोह से है और यदि मोह जाता रहै, तो आप एक है फिर मोक्ष क्यों न पावे?16 श्रावक प्रतिक्रमणसार में भी यह बतलाया गया है कि सदा एक रहनेवाली आत्मा का अनेक के प्रति ममत्व होना ही उसके बन्धन और दुःख का मूल कारण है। इसलिए एकत्व भावना का चिन्तन आत्मा को अनेकात्मक संसार से मुक्त कराने में बहुत ही सहायक होता है। इसे समझाते हुए कुन्थुसागरजी महाराज कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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